6th Semester | Political Science Understanding Globalization | Unit 3 Part 2 | वैश्विक न्याय | Chapter Explanation Notes in Hindi | DU SOL NCWEB IGONU

DU SOL NCWEB 6th Semester

Political Science Understanding Globalization

Unit 3 Part 2

वैश्विक न्याय



 

न्याय के लिए अंग्रेजी में जस्टिस शब्द का प्रयोग किया गया है जो लैटिन भाषा के शब्द जस्टिसिया और जस से लिया गया है।

 

व्यवहारपरक संदर्भ में न्याय का संबंध राज्य के कानून की धारणा से है जिसके परिणाम स्वरुप कानूनी न्याय जुड़ाव धारणा बन जाती हैं। दूसरे शब्दों में न्याय का संबंध कानून व्यवस्था तथा सजा देने वाली नियमों की व्याख्या से भी है।

 

सामान्य अर्थों में न्याय का तात्पर्य होता है| कर्तव्य-सद्गुण। न्याय किसी भी उन्नतशील सभ्यता का अनिवार्य अंग होता है| एक गतिशील सभ्यता के रूप में समाज के सदस्यों के अधिकारों का सम्मान करना होता है गुणों को पुरस्कृत करना होता है एवं सदस्यों की आवश्यकताएं पूर्ण करनी होती है।

 

न्याय के सिद्धांत मानवीय हितों के अधिक संबंधित होते हैं मानवीय तर्क से कम।

 

न्याय की अवधारणा का विकास:

 

प्लेटो का न्याय सिद्धांत

 

प्लेटो के दर्शन में न्याय के सिद्धांत का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्लेटो की पुस्तक ' द रिपब्लिक ' का मुख्य केंद्र बिंदु न्याय की खोज एवं उसका स्थान निर्धारित करना है। प्लेटो की रचना का उपशीर्षक ' न्याय के संबंध ' ( Concerning Justice) है। इससे स्पष्ट होता है कि प्लेटो अपने दर्शन में न्याय के सिद्धांत पर कितना महत्त्व देते हैं।

 

प्लेटो की व्यक्तिगत न्याय के संदर्भ में मान्यता है कि मानव आत्मा के तीन प्रमुख तत्त्व है तृष्णा , साहस व विवेक।

व्यक्ति की आत्मा के तीनों गुणों में सामंजस्य ही न्याय है। इन तीनों तत्त्व की प्रधानता के अनुसार समाज में तीन वर्ग- दार्शनिक / शासक वर्ग ( विवेक ) , सैनिक वर्ग ( साहस ) एवं उत्पादक वर्ग ( तृष्णा ) रहने चाहिए है।

 

प्लेटो के अनुसार न्याय का अर्थ है कि मनुष्य अपने उन सभी कर्त्तव्यों का पूरी ईमानदारी से पालन करें , जिनका पालन समाज के प्रयोजनों की दृष्टि से किया जाना आवश्यक है।

 

अरस्तु का न्याय का सिद्धांत

 

अरस्तु के मतानुसार न्याय का आधार साम्य की भावना है। राजनीतिक विज्ञान के जनक अरस्तु ने अपने ग्रंथ एथिक्स में न्याय संबंधी सिद्धांत को राज्य के लिए महत्वपूर्ण माना है।

 

अरस्तु का मत है कि न्याय को सरोकार मानवीय संबंधों के नियमन से है। अरस्तु ने न्याय को दो भागों में विभाजित किया है पहला सामान्य न्याय और दूसरा विशेष न्याय।

 

सामान्य न्याय: सामान्य न्याय से उसका आशय पड़ोसी के प्रति किए जाने वाले भलाई के सभी कार्य से है। अच्छाई के सभी कार्य सभी सद्गुणों को ही अरस्तु सामान्य न्याय समझता है।

 

विशेष न्याय: विशेष न्याय मनुष्य को अन्य मनुष्यों के साथ उचित एवं सामान्य व्यवहार करने की प्रेरणा देता है।

 

जहां तक विशेष न्याय का संबंध है, यह फिर से दो प्रकार का होता है, अर्थात् वितरणात्मक न्याय और उपचारात्मक या सुधारात्मक न्याय। वितरणात्मक न्याय का तात्पर्य है कि राज्य को योग्यता के अनुसार नागरिकों के बीच माल और धन का विभाजन या वितरण करना चाहिए।

 

फिर से उपचारात्मक न्याय दो में विभाजित है, स्वैच्छिक लेनदेन (नागरिक कानून) और अनैच्छिक लेनदेन (आपराधिक कानून) से निपटना। इसके अलावा, अरस्तू ने उपर्युक्त प्रकार के न्याय में वाणिज्यिक और संचयी न्याय जोड़ा।

 

 

वितरण न्याय :

 

अरस्तू का मत था कि न्याय का यह रूप किसी भी क्रांति को रोकने के लिए सबसे शक्तिशाली कानून है, क्योंकि यह न्याय राज्य के नागरिक होने के नाते उनकी आवश्यकता के अनुसार कार्यालयों, सम्मानों, वस्तुओं और सेवाओं के उचित और आनुपातिक आवंटन में विश्वास करता है।

 

यह न्याय ज्यादातर राजनीतिक विशेषाधिकारों से संबंधित है। अरस्तू ने वकालत की कि प्रत्येक राजनीतिक संगठन का अपना वितरणात्मक न्याय होना चाहिए। हालाँकि, उन्होंने लोकतांत्रिक और साथ ही न्याय के कुलीन मानदंडों को खारिज कर दिया और समाज में उनके उच्चतम योगदान के कारण ही पुण्यों को कार्यालयों के आवंटन की अनुमति दी, क्योंकि गुणी लोग कम हैं। अरस्तू का मानना था कि अधिकांश कार्यालय केवल कुछ को ही आवंटित किए जाने चाहिए।

 

सुधारात्मक न्याय:

 

वाणिज्यिक लेनदेन से संबंधित सभी कानूनों को उपचारात्मक और सुधारात्मक कार्रवाइयों के अंतर्गत निपटाया जाता है। इसका उद्देश्य समाज के अन्याय के कारण एक व्यक्ति ने जो खोया है उसे बहाल करना है। यह न्याय एक अधिकार के दूसरे पर अतिक्रमण को रोकता है।

वैश्विक न्याय

 

1980 के पश्चात् वैश्विक न्याय समकालीन राजनीति दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बना। वैश्विक न्याय की धारणा मुख्यतः तीन संबंधित मुद्दों वितरणात्मक न्याय, नैतिक सार्वभौमिकता एवं प्रमुख वित्तीय संस्थानों के इर्द - गिर्द घूमती है। वितरणात्मक न्याय का मुद्दा धन, संपदा तथा संसाधनों के वर्तमान वितरण पर न्यायोचित प्रक्रिया से संबंधित है।

 

रॉल्स ने अपनी रचना ' द लॉ ऑफ पीपुल्स ' ( 1999 ) में वैश्विक न्याय की धारणा को अपनी पहली पुस्तक ' अ थियरी ऑफ जस्टिस ' से आगे बढ़ाया। इसके अंतर्गत उन्होंने कहा कि विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों द्वारा एक ऐसी व्यवस्था का चयन किया जाएगा , जिसमें किसी को यह ज्ञात नहीं होगा कि वे किसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में , निर्णय अनभिज्ञता के आधार पर लिए जाएंगे। जिसमें राज्यों का मुख्य कर्त्तव्य संधियों का पालन करना तथा युद्ध को रोकना है।

लेकिन इसका तात्पर्य संपत्ति का वैश्विक स्तर पर पुनर्वितरण करना बिल्कुल नहीं है।

हम यह भी कह सकते हैं कि वैश्विक न्याय की धारणा स्वतंत्र राज्यों परस्पर सहयोगियों ) की व्यवस्था तक ही सीमित है। जिसे रॉल्स एक ' वास्तविक स्वपनलोक ' का नाम देते हैं। रॉल्स का मानना है कि विश्व बंधुत्व के समर्थक सभी व्यक्ति एक दूसरे के साथ मनुष्य होने के कारण न्याय की धारणा में सम्मिलित होते हैं, ना कि एक जैसी जाति धर्म व वर्ग होने के कारण।

 

रॉल्स असमानता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समस्या नहीं मानते। वैश्विक गरीबी उन्मूलन को रॉल्स सभी देशों का सामूहिक कर्तव्य मानते हैं। अतः रॉल्स वैश्विक न्याय के संदर्भ में स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय कानून , मानवाधिकार एवं अंतर्राष्ट्रीय संधियों के अंतर्गत उत्तरदायित्वों तक सिमटे रहते हैं।

 

यू.एन.डी.पी कि मानव विकास रिपोर्ट ( 1999 ), में वैश्विक न्याय प्राप्त करने के संदर्भ में विचार प्रस्तुत किए गए हैं। जैसे

 

1.  अंतर्राष्ट्रीय निगमों के लिए वैश्विक आचार संहिता हो जिससे पर्यावरण तथा श्रम से संबंधित कायदे कानूनों का पालन हो सके।

2.  विश्व व्यापार संगठन के लिए एकाधिकार विरोधी शक्ति सहित नए कायदे कानूनों को लाया जाए। जिससे वे बहुराष्ट्रीय निगमों को उद्योगों पर अपना नियंत्रण जमाने से रोका जाए।

3.  वैश्विक केंद्रीय बैंक गरीब देशों को ऋण देने व वित्तीय बाजार को नियमित करने में उनकी सहायता करें।

4.  कई गैर सरकारी संस्थाएँ वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के लिए प्रयासरत है, परंतु ऐसा तभी संभव हो सकता है जब ये संस्थाएँ तानाशाह पूर्ण रवैया छोड़कर लोकतांत्रिक स्तर पर काम करें।

 

वैश्वीकरण की प्रक्रिया में न्याय को राष्ट्र - राज्यों की सीमाओं से बाहर निकालकर अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र की सीमाओं तक पहुँचा दिया गया है।

 

 

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