Hindi A 4th Semester Unit 3 Chapter 2 (अशोक के फूल (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी)) Study Notes DU SOL NCWEB IGONU

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Hindi A

Semester 4th

Unit 3 chapter 2

अशोक के फूल (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी)



जीवन परिचय :- 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म सन 1907 मैं बलिया जिले के ओझवलिया में हुआ था।


उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से ज्योतिषी एवं संस्कृत की उच्च शिक्षा प्राप्त की।

सन 1930 से 1950 तक वे शांतिनिकेतन में हिंदी के अध्यक्ष पद पर कार्य करते रहे।

सन 1950 से 1960 तक वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदू विभाग के अध्यक्ष रहे।

इसके बाद कुछ समय तक वह पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ ने अध्यक्ष एवं प्रोफेसर के पद पर कार्य करते रहे।

लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डि.लिट. की उपाधि से सम्मानित किया।


भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण की उपाधि से भी सम्मानित किया।

19 जून सन् 1979 को उनका निधन हुआ।




द्विवेदी जी ने बहुत सारी रचनाओं का निर्माण किया है उनके कुछ रचनाएं निम्न लिखित है |

आलोचनात्मक साहित्य : हिंदी साहित्य की भूमिका, कबीर, विचार और वितर्क, सूर साहित्य, नाथ संप्रदाय, हमारी साहित्यिक समस्याएं।


निबंध साहित्य : अशोक के फूल, कुटज तथा अन्य निबंध।

इतिहास: हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास, हिंदी साहित्य का आदिकाल।

उपन्यास: बाणभट्ट की आत्मकथा, चारुचंद्रलेख और अनामदास का पोथा।

-> इनका समस्त साहित्य 11 खंडों में राजकमल प्रकाशन से 1981 में प्रकाशित हो चुका है।


पुरस्कार : 

  • कबीर शीर्षक ग्रंथ के लिए इलाहाबाद में सन 1947 में मंगला प्रसाद पारितोषिक प्रदान किया गया।

  • सूर साहित्य पुस्तक पर इन्हें मध्य भारत हिंदी समिति इंदौर में सूरज प्रसाद स्वर्ण पदक मिला।

  • बाणभट्ट की आत्मकथा पर महावीर प्रसाद द्विवेदी स्वर्ण पदक मिला।

  • हिंदी साहित्य उद्भव और विकास पुस्तक पर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उत्तम पाठ्य पुरस्कार।

  • नाथ संप्रदाय पर उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा इन्हें पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

  • 1973 में केंद्रीय हिंदी साहित्य अकादमी के द्वारा तथा 1957 में भारत सरकार के पद्मा भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया।




आचार्य द्विवेदी के के सभी साहित्य में एक विशेष प्रकार की सांस्कृतिक गरिमा एवं उदार मानवतावादी दृष्टि का प्रसार दिखाई देता है।

उनके अनुसार मनुष्य के विचारों को सही दिशा देना और सहज मानवीय विकास की साहित्य लेखन का एकमात्र लक्ष्य है।


द्विवेदी जी भारतीय संस्कृति एवं ऐतिहासिक परंपराओं के प्रति आस्था रखते थे।

द्विवेदी जी निबंध लिखते समय विषय कुछ सामान्य रूप से आरंभ करते थे और बाद में गहरे सांस्कृतिक चिंतन से उसे जोड़ देते हैं।


द्विवेदी जी आस्थावान होने के साथ शास्त्र अध्ययन शील भी थे उन्होंने बड़े स्तर पर अध्ययन किया था।

संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बंगला आदि भाषाएं तथा इतिहास दर्शन, संस्कृत ,साहित्य, धर्म शास्त्र आदि विषय का उन्हें बहुत गहरा ज्ञान था| दिवेदी जी की इस अध्ययन की छाप हमें उनके साहित्य लेखन में मिलती है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य में मानवता, लोक संग्रह की भावना ,भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा, प्राचीन एवं नवीन का सामंजस्य ,एवं गांधीवादी के प्रभाव मिलते हैं।



भाषा शैली :-

शैली वह तत्व है जो एक व्यक्ति के लेखन को दूसरे लेखन से भिन्न बना देता है।

द्विवेदी जी की धारणा है लेखक की पराजय उस स्थान पर है जहां वह अपने प्रयोजन को प्रकट करने के लिए कम शब्दों का प्रयोग करके स्पष्ट कर दें या अधिक शब्दों का प्रयोग करके निरर्थक कर दे।

द्विवेदी जी विषय को स्पष्ट करना लेखक का लक्ष्य मानते हैं साथ ही सरल सहज सजीव शैली के पक्षधर हैं

द्विवेदी जी की भाषा शैली विषय के अनुरूप होती है विषय के अनुरूप उनकी भाषा शैली में परिवर्तन आता है।

विषय को समीचीन प्रतिपादन करने के लिए वह कहीं व्यास शैली तो कहीं समाज शैली को अपनाते हैं।

पाठक के सम्मुख अपनी बातें सरल स्पष्ट एवं प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत करने के लिए वह बीच-बीच में अवांतर कथाएं प्रस्तुत करते हैं कहीं पुरानी संस्मरण और अनुभव बताकर पाठकों के साथ आत्मीयता स्थापित करते हैं।


द्विवेदी जी सरल सहज भाषा के पक्षधर हैं। द्विवेदी जी उच्च कोटि के शब्द शिल्पी है। द्विवेदी जी की अधिकांश रचनाओं में तत्सम शब्दावली देखने को मिलेगी परंतु कुछ अपराधियों को छोड़कर अधिकांश में जटिलता प्रदर्शित की गई है।

"अशोक में फिर फूल आ गए और इन छोटे छोटे लाल लाल पुरुषों के मनोहर स्तबको को कैसे मोहन भाव है। "


द्विवेदी जी का भाषा के प्रति दृष्टिकोण उतार दृश्य कौन हैं भाषा में प्रभाव लाने के लिए उर्दू , अंग्रेजी शब्द का यथास्थान प्रयोग किया है।

स्थानीय और देशज शब्दों से भी उन्हें परहेज नहीं है।

विषय को सरल और स्पष्ट बनाने के लिए और भावों को सहज अभिव्यक्ति के लिए पीटना, झबरा, रटना , भिड़ना आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं।

द्विवेदी जी के कथन मे अर्धविराम , आश्चर्यबोधक, प्रश्नर्थाक पूर्णविराम आदि चिन्हों का सार्थक प्रयोग से उनके कथन अधिक प्रभावशाली हो जाता है।

उन्होंने अधिकतर छोटे-छोटे वाक्य और सरल वाक्य का प्रयोग किया है।

प्रस्तुत निबंध में जले पर नमक, गला सूखा रहा हूं, माया कटे कटती नहीं आदि ऐसे ही प्रयोग किया है।

अशोक के फूल :


अशोक में फिर फूल आ गये हैं। इन छोटे-छोटे, लाल-लाल पुष्पों के मनोहर स्तबकों में कैसा मोहन भाव है ! बहुत सोच-समझ कर कंदर्प-देवता ने लाखों मनोहर पुष्पों को छोड़कर सिर्फ पाँच को ही अपने तूणीर में स्थान देने योग्य समझा था। एक यह अशोक ही है।

लेकिन पुष्पित अशोक को देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। इसलिए नहीं कि सुन्दर वस्तुओं को हत्भाग्य समझने में मुझे कोई विशेष रस मिलता है। कुछ लोगों को मिलता है। वे बहुत दूरदर्शी होते हैं। जो भी सामने पड़ गया, उसके जीवन के अंतिम मुहूर्त तक का हिसाब वे लगा लेते हैं। मेरी दृष्टि इतनी दूर हो जाती है। असली कारण तो मेरे अंतर्यामी ही जानते होंगे, कुछ थोड़ा-सा मैं भी अनुमान कर सकता हूँ। बताता हूँ।

भारतीय साहित्य में, और इसलिए जीवन में भी, इस पुष्प का प्रवेश और निर्गम दोनों ही विचित्र नाटकीय व्यापार हैं। ऐसा तो कोई नहीं कह सकेगा कि कालिदास के पूर्व भारतवर्ष में अस पुष्प का कोई नाम ही नहीं जानता था; परन्तु कालिदास के काव्यों में यह जिस सोभा और सौकुमार्य का भार लेकर प्रवेश करता है, वह पहले कहाँ था ! उस प्रवेश में नववधू के गृह-प्रवेश की भाँति शोभा है, गरिमा है, पवित्रता है और सुकुमारता है। फिर एकाएका मुसलमानी सल्तनत की प्रतिष्ठा के साथ-ही-साथ यह मनोहर पुष्प साहित्य के सिंहासन से चुपचाप उतार दिया गया। नाम तो लोग बाद में लेते थे, पर उसी प्रकार जिस प्रकार बुद्ध, विक्रमादित्य का। अशोक को जो सम्मान कालिदास से मिला, वह अपूर्व था। सुन्दरियों के आसिंजनकारी नूपुरवाले चरणों के मृदु आघात से वह फूलता था, कोमल कपोलों पर कर्णावतंस के रूप में झूलता था और चंचल नील अलकों की अचंचल शोभा को सौ गुना बढ़ा देता था।

वह महादेव के मन में क्षोभ पैदा करता था, मर्यादा पुरुषोत्तम के चित्त में सीता का भ्रम पैदा करता था और मनोजन्मा देवता के एक इशारे पर कंधों पर से ही फूट उठता था। अशोक किसी कुशल अभिनेता के समान झम से रंगमंच पर आता है और दर्शकों को अभिभूत करके खप-से निकल जाता है। क्यों ऐसा हुआ ? कंदर्प-देवता के अन्य बाणों की कदर तो आज भी कवियों की दुनिया में ज्यों-की-त्यों है। अरविन्द को किसने भुलाया, आम कहां छोड़ा गया और नीलोत्पल की माया को कौन काट सका ? नवमल्लिका की अवश्य ही जब विशेष पूछ नहीं है; किन्तु उसकी इससे अधिक कदर कभी थी रस-साधना के पिछले हजारों वर्षों पर बरस जाना चाहता है। क्या यह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज थी ? सहृदयता क्या लुप्त हो गई थी ? कविता क्या सो गई थी ? ना, मेरा मन यह सब मानने को तैयार नहीं है। जले पर नमक तो यह है कि एक तरंगायित पत्रवाले निफूले पेड़ को सारे उत्तर भारत में अशोक कहा जाने लगा। याद भी किया तो अपमान करके।

लेकिन मेरे मानने–न मामने से होता क्या है ? ईसवी सन् के आरंभ के आस-पास अशोक का शानदार पुष्प भारतीय धर्म, साहित्य और शिल्प में अद्भुद महिमा के साथ आया था। उसी समय शताब्दियों के परिचित यक्षों और गंधर्वों ने भारतीय धर्ध-साधना को एकदम नवीन रूप में बदल दिया था। पंडितों ने शायद ठीक ही सुझाय़ा है कि गंधर्व और कंदर्प वस्तुतः एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न उच्चारण हैं। कंदर्प-देवता ने यदि अशोक को चुना है तो यह निश्चित रूप से एक आर्यतर सभ्यता की देन है। इन आर्येतर जातियों के उपास्य वरुण थे, कुबेर थे, वज्रपाणि यक्षपति थे। कंदर्प यद्यपि कामदेव का नाम हो गया है तथापि है वह गन्धर्व का ही पर्याय। शिव से भिड़ने जाकर एक बार यह पिट चुके थे, विष्णु से डरते थे और बुद्धदेव से भी टक्कर लेकर लौट आए थे। लेकिन कंदर्प-देवता हार मानने वाले जीव न थे। बार-बार हारने पर भी वह झुके नहीं। नये-नये अस्त्रों का प्रयोग करते रहे। अशोक शायद अंतिम अस्त्र था। बोद्ध धर्म को इन नये अस्त्र से उन्होंने घायल कर दिया। वज्रयान इसका अभिभूत कर दिया और शाक्त-साधना को झुका दिया। वज्रयान इसका सबूत है, कौल-साधना इसका प्रमाण है और कापालिक मत इसका गवाह है।

रवीन्द्रनाथ ने इस भारतवर्ष को ‘महामानवसमुद्र’ कहा है। विचित्र देश है वह ! असुर आए, आर्य आए, शक आए, हूण आए, नाग आए, यक्ष आए, गंधर्व आए-न जाने कितनी मानव-जातियाँ यहाँ आई और आज के भारतवर्ष के बनाने में अपना हाथ लगा गई। जिसे हम हिन्दू रीति-नीति कहते हैं, वे अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का अद्भुद मिश्रण है एक-एक पशु, एक-एक पक्षी न जाने कितनी स्मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित हैं। अशोक की भी अपनी स्मृति-परंपरा है। आम की भी है, बकुल की भी है, चंपे की भी है। सब क्या जाने किस बुरे मुहूर्त में मनोजन्मा देवता ने शिव पर बाण फेंका था ? शरीर जलकर राख हो गया और वामन-पुराण (पष्ठ अध्याय) की गवाही पर हमें मालूम है कि उनका रत्नमय धनुष टूटकर खंड-खंड हो धरती पर गिर गया। जहाँ मूठ थी, वह स्थान रुक्म-मणि से बना हुआ जो नाह-स्थान था, वह टूटकर गिरा और मौलसरी के मनोहर पुष्पों में बदल गया ! अच्छा ही हुआ। इन्द्रनील मणियों का बना हुआ कोटि-देश भी टूट गया और सुन्दर पाटल-पुष्पों में परिवर्तित हो गया। यह भी बुरा नहीं हुआ। लेकिन सबसे सुन्दर बात यह हुई कि चन्द्रकांत-मणियों का बना हुआ मध्यदेश टूटकर चमेली बन गया और विद्रुम की बनी निम्नतर कोटि बेला बन गई, स्वर्ग को जीतनेवाला कठोर धनुष जो धरती पर गिरा तो कोमल फूलों में बदल गया ! स्वर्गीय वस्तुएँ धरती से मिले बिना मनोहर नहीं होतीं !


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