DU SOL NCWEB 6th Semester History | Issues in 20th C World History II | Important Question and Answers | SOL OFFLINE EXAM

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6th Semester History

Important Questions – Answers

 

1. शीत युद्ध क्या है? तथा उसके उदय एवं कारणों की व्याख्या करें।

Ans:

शीत युद्ध अस्त्रविहीन शांतकालीन संघर्ष था। यह ऐसा युद्ध था जिसमें विरोधी सेनाओं ने लड़ाई नहीं की, जिसमें बंदूके नहीं चली, टैंक रणक्षेत्र में नहीं उतरे तथा बम नहीं गिराए गए। द्वितीय विश्व युद्ध का आरम्भ 1939 में तब हुआ था जब पोलैण्ड पर जर्मनी ने आक्रमण किया, और ब्रिटेन और फ्रांस सहित अनेक देशो में 3 सितम्बर 1939 के दिन जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। आगे चलकर इटली और जापान जर्मनी के साथ हो गए तथा सोवियत संघ (जून 1941) और अमेरिका (दिसम्बर 1941) में मित्र राष्ट्रों की ओर शामिल हुए। शत्रु को पराजित कर विजयी मित्र राष्ट्रों में सबसे अधिक शक्तिशाली होकर संयुक्त राज्य अमेरिका तथा सोवियत संघ उभरे थे। परमाणु बम प्राप्त करके अमेरिका (1945 में) और सोवियत संघ (1949 में) महाशक्तियाँ बन गए। अन्य विजयी राष्ट्र अपनी आर्थिक एवं सामाजिक शक्ति से हाथ धो बैठे थे। अतः उपनिवेशवाद उन्मूलन की प्रक्रिया आरंभ हो गई, परन्तु पूर्वी यूरोप के अनेक देश साम्यवादी प्रभावी में आकर सोवियत गुट में शामिल हो गए। उनके समूह को पूर्वी गुट सोवियत गुट या साम्यवादी गुट कहा गया। अनेक पश्चिमी पूँजीवादी देशों ने अमेरिका का नेतृत्व स्वीकार कर लिया, और उनका समूह पश्चिमी गुट या अमेरिका गुट या पूँजीवादी गुट या लोकतांत्रिक गुट के नाम से जाना गया। नई उभरी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अनेक यूरोपीय तथा गैर - यूरोपीय देशों के मध्य - शक्ति का विभाजन हुआ। इसके अतिरिक्त, कैग्ले (जूनियर) एवं विट्कॉफ के अनुसार,परमाणु अस्त्रों के उदय ने विश्व राजनीति में युद्ध की धमकी दी भूमिका में आमूल परिवर्तन कर दिया। इन परिस्थितियों में वर्चस्वशील नेतृत्व के लिए संयुक्त राज्य तथा सोवियत संघ के मध्य प्रतिद्वंदिता आरंभ हो गई। "

 

शीत युद्ध शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 16 अप्रैल 1947 को बर्नार्ड एम बरूच ने दक्षिण कैरोलिना विधानमंडल में भाषण देते हुए किया था।

 

शीत युद्ध के कारण - द्वितीय विश्व युद्ध के अंत एवं पूर्व सोवियत संघ के विघटन के अर्थात् चार दशक से भी अधिक समय तक सम्पूर्ण विश्व की राजनीति पर शीत युद्ध छाया रहा। यह विश्व युद्ध दो विरोधी सिद्धान्तों के आधार पर लड़ा गया और सम्पूर्ण युद्ध दो विरोधी गुटों में बंटकर रह गया था। एक गुट का नेतृत्व पूँजीवाद देश अमरीका कर रहा था और दूसरे गुट का संचालन समाजवादी देश पूर्व सोवियत संघ कर रहा था। महायुद्ध की समाप्ति के बाद दोनों महाशक्तियाँ युद्ध के प्राप्त लाभ की प्राप्त लाभ की स्थिति को बनायें रखना चाहती थीं और अपने प्रभाव के विस्तार के लिए उत्सुक थीं। उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति के मार्ग में एक शक्ति दूसरे के लिए बाधक थीं। दोनों ही पक्षों को एक दूसरे से कुछ शिकायतें थी। वे शिकायतें ही मूल रूप में शीत युद्ध को उत्पत्ति का कारण थीं। यहां शीत युद्ध की उत्पत्ति के निम्नलिखित कारण इस प्रकार हैं से 1. ऐतिहासिक कारण- सोवियत संघ में 1917 को बोल्शेविक क्रान्ति होना पश्चिमी विचारधारा के राष्ट्रों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गयी थी। पश्चिमी राष्ट्रों ने इसका विरोधी भी किया था, ब्रिटेन, अमरीकी, फ्रांस जैसे राष्ट्र साम्यवाद का प्रसार रोकने का अथक प्रयास भी कर रहे थे।

इसी दृष्टि का विरोध करने स्वरूप ब्रिटेन ने 1923 तक, अमेरिका ने 1933 तक मान्यता नहीं दिये जाने से रूस पश्चिमी राष्ट्रों के प्रति नाराजगी रखता था। जर्मनी जैसे राष्ट्रों को आशंका की दृष्टि से देखने के बजाए रूस पर अधिक नजर रखने की जरूरत समझ रहे थे। ब्रिटेन ने तुष्टिकरण की नीति इसी दृष्टिकोण से अपनायी कि जर्मनी को मदद देकर रूस के साम्यवाद को रोका जा सकता है। इसे हम शीत युद्ध की उत्पत्ति का ऐतिहासिक कारण भी मान सकते हैं।

 

2. पारस्परिक सन्देह एवं अविश्वास द्वितीय महायुद्ध के दौरान पारस्परिक सहयोग करते हुए भी दोनों महाशक्तियाँ एक - दूसरे का सन्देह, आशंका एवं अविश्वास की दृष्टि से देखती थीं। वस्तुतः पश्चिम के देशों के लिए जर्मनी और पूर्व सोवियत संघ दोनों ही सिर दर्द थे। अतः वे दोनों से छुटकारा पाना चाहते है या कम - से - कम उनकी शक्ति का हास चाहते थे। यही कारण है कि युद्ध के दौरान जब पूर्ववर्ती सोवियत संघ ने पश्चिम में जर्मनी के विरूद्ध दूसरा मोर्चा खोलने के लिए अनुरोध किया तो ब्रिटेन व अमरिका ने उसे टालने की कोशिश की। पश्चिम पूर्ववर्ती सोवियत संघ की पूर्णत : ' आहत एवं शक्तिहीन ' होते देखना चाहता था। पश्चिम को इसमें कुछ सफलता भी मिली क्योंकि युद्ध में पूर्व सोवियत संघ को सबसे अधिक हानि उठानी पड़ी थी। परन्तु इसने पारस्परिक अविश्वास की जड़ों को गहरा कर दिया।

 

3. युद्धोत्तर उद्देश्यों के अन्तर - अमरीका और सोवियत संघ के युद्धोतर उद्देश्यसों में भी स्पष्ट भिन्नता थी। भविष्य में जर्मनी के विरूद्ध सुरक्षित रहने के लिए सोवियत संघ, यूरोप के देशों को सोवियत प्रभाव क्षेत्र में लाना चाहता था, तो पश्चिमी देशों के मत में जर्मनी की पराजय से सोवियत संघ के अत्यन्त शक्तिशाली हो जाने का भय था। यह देश सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव क्षेत्र को सीमित रखने के लिए कटिबद्ध थे। इसके लिए आवश्यक था कि पूर्वी यूरोप के देशों में लोकतांत्रिक शासकों की स्थापना हो जिसके लिए स्वतंत्र निर्वाचन कराने आवश्यक थे। स्टालिन के मत में इन देशों में स्थापित साम्यवादी सरकारें ही वास्तविक जनतांत्रिक सरकारें थीं। प्रारंभ में राष्ट्रवादी सेनाओं को तो वहां प्रवेश तक नहीं करने दिया जबकि साम्यवादी सेनाओं को प्रवेश सम्बन्धी सुविधाएं प्रदान की और उनके सम्पूर्ण युद्ध सामग्री सौंप दी, जो जापानी सेना भागते समय छोड़ गयी थी। याल्टा समझौतों के विरूद्ध की गयी सोवियत कार्यवाहियों से पश्चिमी राष्ट्रों के हृदय में सोवियत संघ के प्रति सन्देह उत्पन्न होने लगा।

 

4. सोवियत संघ द्वारा बाल्कन समझौते का अतिक्रमण- सोवियत संघ ने अक्टूबर 1944 में चर्चिल के पूर्वी यूरोप के विभाजन के सुझाव को स्वीकार कर लिया था। इसके अंतर्गत यह निश्चित हुआ था कि सोवियत संघ को बाल्गारिया तथा रूमानिया में प्रभाव स्वीकार किया जाय और यही स्थिति यूनान में ब्रिटेन को स्वीकार की जाये। हंगरी तथा यूगोस्लाविया में दोनों का बराबर प्रभाव माना जाये। किन्तु युद्ध की समाप्ति के बाद इन देशों में बाल्कन समझौते की उपेक्षा करते हुए सोवियत संघ ने साम्यवाद दलों को खुलकर सहायता दी और वहां ' सर्वहारा की तानाशाही ' स्थापित करा दी गयी। इससे पश्चिमी देशों का नाराज हो जाना स्वाभाविक था।

5. ईरान से सोवियत सेना का न हटाया जाना - द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सोवियत सेना ने ब्रिटेन की सहमति से उत्तरी ईरान से अधिकार जमा लिया था। यद्यपि युद्ध की समाप्ति के बाद ऑग्ल - अमरीकी सेना तो दक्षिणी ईरान से हटा ली गयी। पर सोवियत संघ ने अपनी सेना हटाने से इन्कार कर दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव के फलस्वरूप ही सोवियत संघ ने बाद में वहां से अपनी सेनाएं हटायी। इससे भी पश्चिमी देश सोवियत संघ से नाराज हो गये और उसके प्रति अविश्वास की भावना का विकास हुआ।

6. यूनान में सोवियत संघ का हस्तक्षेप- द्वितीय विश्व युद्ध के समय यूनान पर जर्मनी का आधिपत्य था। 1944 में उसके आधिपत्य की समाप्ति पर ब्रिटेन ने जर्मनी का स्थान ले लिया। लेकिन वहां गृह युद्ध प्रारम्भ हो गया जिसमें साम्यवादी छापामारों को यूगोस्लाविया, वुल्गारिया तथा रूमानिया द्वारा सहायता दी जा रही थी अतः यूनान के साम्यवादी बन जाने की पूरी सम्भावना उत्पन्न हो गयी थी यद्यपि अमेरिका के हस्तक्षेप के कारण ऐसा सम्भव नहीं हो पाया, किन्तु फिर भी इस प्रश्न को लेकर सोवियत संघ तथा अमेरिका के मध्य तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई।

 

शीत युद्ध की विशेषताये

  • शीत युद्ध मे प्रचार-प्रसार को महत्व दिया जाता है क्योंकि शीत युद्ध लड़ने के लिए समाचार,अखबारों एव कूटनीति के माध्यम से यह युद्ध लड़ा जाता है यह एक वाक्य युद्ध हैं।
  • शीत युद्ध को दिमागों में युद्ध के प्रश्नय देने वाला युद्ध कहा जाता है क्योंकि इसमें युद्ध जैसे हालात सामने आ जाते है परंतु युद्ध होता नही हैं।
  • शीत युद्ध विचारो का ही नही बल्कि रूस और अमेरिका जैसी महाशक्ति के मध्य चलने वाले संगर्ष का नाम हैं।
  • दोनो महाशक्तियों के मध्य तनावपूर्ण स्थिति को शीत युद्ध कहा जाता हैं।
  • शीत युद्ध में सैनिक हस्तक्षेप, सैनिक संधियों, को मजबूत करने की स्तिथि प्रकट हो जाती है।
  • शीत युद्ध को बोलकर लड़ा जाने वाला युद्ध भी कहा जाता हैं।

निष्कर्ष: शीत युद्ध का अमेरिका और सोवियत संघ के साथ-साथ पूरे अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर भी बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। प्रेत दिए हुए तथ्यों से हम ध्यान दें तो हम यह भी कह सकते हैं कि आज की दुनिया के लिए गंभीर समस्या बन रहे आतंकवाद की शुरुआत भी कहीं ना कहीं शीतयुद्ध के दौर से ही हुई है।

 

Q2 चिपको आंदोलन क्या था? तथा उसकी पूर्ण व्याख्या करें।

Ans

चिपको आन्दोलन -  चिपको आन्दोलन मूलत : उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए वहां के लोगों द्वारा 1970 के दशक में आरंभ किया गया आंदोलन है। इसमें लोगों ने पड़ों को गले लगा लिया ताकि उन्हें कोई काट न सके। वह आलिंगन दरअसल प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसे चिपको ' की संज्ञा दी गई।

चिपको आन्दोलन के पीछे एक पारिस्थितिक और आर्थिक पृष्ठभूमि है जिस भूमि में यह आंदोलन उपजा वह 1970 में आई भयकर बाढ़ का अनुभव कर चुका था। इस बाढ़ से 400 किमी दूर तक का इलाका ध्वस्त हो गया तथा पांच बढ़े पुल हजारो मवेशी, लाखों रूपये की लकड़ी व ईधन बहकर नष्ट हो गयी।

बाढ़ के पानी के साथ वही गाद इतनी अधिक थी कि उसने 350 किमी लम्बी ऊपरी गंगा नहर के 10 किमी तक के क्षेत्र में अवरोध पैदा कर दिया जिससे 8.5 लाख एकड़ भूमि सिंचाई से वंचित हो गई थी और 48 मेगावाट बिजली का उत्पादन ठप हो गया था। अलकनंदा की इस त्रासदी ने ग्रामवासियो के मन पर एक अमिट छाप छोड़ी थी और उन्हें पता था कि लोगों के जीवन में वनों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। चिपको आन्दोलन को ब्रिटिशकालीन वन अधिनिधम के प्रावधानों से जोड़ कर भी देखा जा सकता है जिनके तहत पहाड़ी समुदाय को उनकी दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी वनों के सामुदायिक उपयोग से वंचित कर दिया गया था।

स्वतंत्र भारत के वन - नियम कानूनों ने भी औपनिवेशिक परम्परा का ही निर्वाह किया है। वनों के नजदीक रहने वाले लोगों को वन सम्पदा के माध्यम से सम्मानजनक रोजगार देने के उद्देश्य से कुछ पहाड़ी नौजवानों ने 1662 में चमोली जिले के मुख्लाय गोपेश्वर में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ बनाया था। उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने संस्था के काष्ठ कला केंद्र को सन् 1972-73 के लिए अंगू के पेड़ देने से इंकार कर दिया था।

पहले ये पेड़ नजदीक रहने वाले ग्रामीणों को मिला करते थे। गांव वाले इस हल्की लेकिन बेहद मजबूत लकड़ी से अपनी जरूरत के मुताबिक खेती - बाड़ी के औजार बनाते थे। गांवों के लिए यह लकड़ी बहुत जरूरी थी। पहाड़ी खेती में बेल का जुआ इसी लकड़ी बनाया जाता रहा है, पहाड़ में ठण्डे मौसम और कठोर पथरीली जमीन में अंग के गुण सबसे खरे उतरते हैं। इसके हल्केपन के कारण बेल थकता नहीं। यह लकड़ी मौसम के मुताबिक न तो ठण्डी होती है, न गरम, इसलिए कभी फटती नहीं हैं और अपनी मजबूती के कारण बरसो तक टिकी रहती है।

इसी बीच पता चला कि वन विभाग ने खेल - कूद का सामान बनाने वाली इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी का गोपेश्वर से एक किलोमीटर दूर मण्डल नाम के वन से अंगू के पेड़ काटने की इजाजत दे दी है। वनों के ठीक बगल में बसे गांव वाले जिन पेड़ों को छू तक नहीं सकते थे, अब उन पेड़ो के दूर इलाहाबाद की एक कम्पनी को काटकर ले जाने की इजाजत दे दी गई।

अगू से टेनिस, बैडमिटन जैसे खेलों का सामान मैदानी कम्पनियों में बनाया जाये इससे गांव के लोगों या दशौली ग्राम स्वराज्य संघ को कोई एतराज नहीं था। वे तो केवल इतना ही चाहते थे कि पहले खेत की जरूरतें पूरी की जाये और फिर खेल की। इस जायज मांग के साथ इनकी एक छोटी - सी मांग और भी थी। वनस्पतियों को वन संपदा से किसी - न - किसी किस्म का रोजगार जरूर मिलना चाहिए ताकि वनों की सुरक्षा के प्रति उनका प्रेम बना रह सके।

चिपकों आन्दोलन का मूल केंद्रेरेनी गांव ( जिला चमौली ) था जो भारत - तिब्बत सीमा पर जोशीमठ से लगभग 22 किलोमीटर दूर ऋषिगंगा और विष्णुगंगा के संगम पर बसा है। वन विभाग ने इस क्षेत्र के अंगु के 2451 पेड़ साइमंड कंपनी को ठेके पर दिये थे। इसकी खबर मिलते ही चन्डी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में 14 फरवरी 1974 को एक सभा की गई जिसमें लोगों को चेताया गया कि यदि पेड़ गिराये गये, तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा।

ये पेड़ न सिर्फ हमारी बारे, जलावन और जड़ी - बूटियों की जरूरतें पूरी करते हैं, बल्कि मिट्टी का क्षरण भी रोकते है। इस सभा के बाद 15 मार्च को गांव वालों ने रेनी जंगल की कटाई के विरोध में जुलूस निकाला ऐसा ही जुलूस 24 मार्च को विधारंथियों ने भी निकाला। जब आंदोलन जोर पकड़ने लगा ठीक तभी सरकार ने घोषणा की कि चमोली में सेना के लिए जिन लोगों के खेतों को अधिग्रहण किया गया था, वे अपना मुआवजा लें जाएं।

गांव के पुरूष मुआवजा लेने चमोली चले गए। दूसरी ओर सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए जिला मुख्यालय, गोणेश्वर बुला लिया। इस मौके का लाभ उठाते हुए ठेकेदार और वन अधिकारी जंगल में घुस गये। अब गांव में सिर्फ महिलायें ही बची थी। लेकिन उन्होने हिम्मत नहीं हारी।

बिना जान की परवाह किये 27 औरतों ने श्रीमति गोरादेवी के नेतृत्व में चिपकों आन्दोलन शुरू कर दिया। इस प्रकार 26 मार्च 1974 को स्वतंत्र भारत के प्रथम पर्यावरण आंदोलन की नींव रखी गई।

 

चिपकों आन्दोलन में महिलाओ की भूमिका

चिपकों आन्दोलन को प्रायः एक महिला आंदोलन के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसके अधिकांश कार्यकचाओं में महिलाएं ही थी तथा साथ ही यह आंदोलन नारीवादी गुणों पर आधारित था। 26 मार्च 1974 को जब ठेकेदार रेणी गांव में पेड़ काटने आये, उस समय पुरुष घरो पर नहीं। गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने कुल्हाड़ी लेकर आये ठेकेदारों को यह कह कर जंगल से भगा दिया कि यह जंगल हमारा मायका है। हम इसे काटने नहीं देंगी। मायका महिलाओं के लिए वह सुखद स्थान है जहाँ संकट के समय उन्हें आश्रय मिलता है। वास्तव में पहाड़ी महिलाओ और जंगलों का अटूट संबंध है।

पहाड़ों की उपजाऊ मिट्टी के बहकर चले जाने से रोजगार के लिए पुरुषों के पलायन के फलस्वरूप गृहस्थी का सारा भार महिलाओं पर ही पड़ता है। पशुओं के लिए घास चारा, रसोई के लिए ईंधन और पानी का प्रबंध करना। खेती के अलावा उनका मुख्य कार्य है। इनका वनों से सीधा संबंध है वनों की व्यापारिक दोहन की नीति ने घास चारा देने वाले चौड़ी पत्तियों के पेड़ों को समाप्त कर चीड़, देवदार के शंकुधारी धरती को सुखा बना देने वाले पेड़ों का विस्तार किया है।

मोटर - सड़कों के विस्तार से होने वाले पेड़ो के कटाव के कारण रसोई के लिए ईंधन का अभाव होता है। इन सबका भार महिलाओं पर ही पड़ता है। अतः इस विनाशलीला को रोकने की चिन्ता बवनों से प्रट्पक्ष जुड़ी महिलाओं के अलावा और कौन कर सकता है। वे जानती है कि मिट्टी के बहकर जाने से तथा भूमि के अनुपजाक होने से पुरुषों को रोजगार के लिए शहरों में जाना पड़ता है।

मिट्टी रुकेगी और बनेगी तो खेती का आधार मजबूत होगा। पुरुष घर पर टिकेगे। इसका एक मात्र उपाय है - हरे पेड़ों की रक्षा करना कयोंकि पेड़ मिट्टी को बनाने और पानी देने का कारखाना है। रेणी के पश्चात् ( चिपको के ही क्रम में ) 1 फरवरी 1978 को अदवाणी गांव के जंगलों में सशस्त्र पुलिस के 50 जवानों की एक टुकड़ी वनाधिकारियों और ठेकेदारों द्वारा भाड़े के कुल्हाड़ी वालों के संरक्षण के लिए पहुंची। वहाँ स्त्रियाँ यह कहते हुए पेड़ों पर चिपक गयीं, " पेड़ नहीं, हम कटेंगी। ' इस अहिंसक प्रतिरोध का किसी के पास उत्तर नहीं था। इन्हीं महिलाओं ने पुनः सशस्त्र पुलिस के कड़े पहरे में 9 फरवरी 1978 को नरेन्द्र नगर में होने वाली वनो की नीलामी का विरोध किया। वे गिरफ्तार का जेल में बंद कर दी गई।

25 दिसम्बर, 1978 को मालगाड़ी क्षेत्र में लगभग 2500 पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जल आंदोलन आरंभ हुआ जिसमें हजारों महिलाओं ने भाग लेकर पेड़ कटवाने के सभी प्रयासों को विफल कर दिया। इस जंगल में 9 जनवरी, 1978 को सुंदरलाल बहुगुणा ने 13 दिनों का उपवास रखा। परिणामस्वरूप सरकार ने तीन स्थानों पर वनों की कटाई तत्काल रोक दी और हिमालय के वनों को संरक्षित वन घोषित करने के प्रश्न पर उन्हें बातचीत करने का न्योता दिया। इस संबंध में निर्णय होने तक गढ़वाल और कुमायू मण्डलों में हरे पेड़ों की नीलामी कटाई और छपान बंद करने की घोषणा कर दी गई।

 

Q  भारतीयस्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका Answer Link

 

Q उत्तर और दक्षिण के आधार पर पर्यावरणीय आंदोलनों की व्याख्या करें|

' पर्यावरण ' शब्द विभिन्न तत्त्वों के संघों से मिलकर बना है, जैसे- भौतिक, जैविक, मानसिकता, सामाजिकता और संस्कृति जो जीवन ( वनस्पति, जीव - जन्तु और मानव ) के वृद्धि और विकास का सम्बन्ध स्थापित करते हैं। इस शब्द की उत्पत्ति जर्मन के जीव विज्ञानी अन्सर्ट हैक्कल ने ' ओसोलोजी ' ( oecologie ) शब्द से 1860 में की थी। उनके अनुसार विज्ञान का सम्बन्ध सजीव जीवों उनके प्राकृतिक आवास स्थान परजीवियों, परजीव भक्षी और विभिन्न प्रकार की मिट्टी, जीवायु इत्यादि से है।

उत्तर में पर्यावरणवाद

पर्यावरण आन्दोलन उत्तर व दक्षिण में समान रूप में दिखे परन्तु उनकी वैचारिकता में थोड़ा अन्तर था। दक्षिण में पारिस्थितिकी के मुद्दे मानवाधिकार, नैतिकता व न्याय के बंटवारे से जुड़े थे। उनका आन्दोलन मुख्यतः स्थानीय बचाव से सम्बन्धित था जो राज्य के विरुद्ध था और स्पष्ट रूप से उन्होंने जीविका और अस्तित्व के मुद्दों पर जोर डाला, पर वहीं उत्तर में उनकी उत्पति का . संकेत उत्पादन प्रक्रिया के बाहर थां।

इन सब के बाद स्थानीय प्रश्न महत्त्वपूर्ण न होते हुए पूरे जैव क्षेत्र का प्रश्न उत्तर में महत्त्वपूर्ण बना। औद्योगिक क्रांति व उसके परिणाम जैसे संसाधनों का बड़ी मात्रा में नष्ट होना, उत्पादन व जनसंख्या का बढ़ना परिणामस्वरूप बीसवीं शताब्दी गवाह है कि पारिस्थिकी चिंतन को लेकर गहरी सतर्कता उठी।

सभी क्षेत्रों के लोगों का इकट्ठा होना, जंगलों की बर्बादी व बड़े - बड़े बाँधों और औद्योगिक कचरे के बढ़ावे को रोकना।

एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक में " साइलेंट स्प्रिंग " 1962 में मैरीन जैव विज्ञानी रशेल कार्सन के द्वारा लिखी गयी। इस पुस्तक में कीटनाशकों के उपयोग के भयंकर प्रभाव का बताया, सबसे ज्यादा DDT ( डाईक्लोरो डाईफिनाइल ट्राइक्लोरो - ईथेन )। कीटनाशकों का सबसे ज्यादा प्रयोग संयुक्त राष्ट्र ने किया जिसकी खपत 1947 से 1960 में 6.34 मिलियन हो गयी।

 

- गुहा के अनुसार " इस किताब के परिणाम पहुँच से परे थे। इस पुस्तक के आने से पर्यावरण को लेकर सतर्क हो गये। नागरिक व सरकार भी नदियों में मछलियों के मारने पर ज्यादा सतर्क हो गयी।

अतः पेस्ट कन्ट्रोल पर एक संघीय समिति का निर्माण हुआ। संयुक्त राष्ट्र ने DDT के प्रयोगों पर प्रतिबंध लगा दिया, हानिकारक रासायनिक तत्त्वों के नियंत्रण के लिए कीटनाशक नियंत्रण एक्ट 1772 में बना और जहरीले पदार्थ के नियंत्रण पर एक्ट 1974 में लगा दिया गया। यूरोप में पर्यावरण को लेकर सतर्कता व्यक्तिगत व संस्थाओं में दिखी। बैरी कोमनर जैसे व्यक्तियों ने तर्क वितर्क कहा प्रदूषण रहित तकनीकियों से पारिस्थिकी या पर्यावरण को बचाया जा सकता है।

 

लव नहर के लिए " एन्टी टोक्सिक " आन्दोलन एक मुख्य उदाहरण है न्याय आन्दोलन का " हुकर रसायन कम्पनी " के बड़े बड़े जहरीले निक्षेप और न्यूयॉर्क में लव कैनाल में जीवों की कमी का कारण था। कैंसर और इत्यादि स्वास्थ्य समस्याएँ उसी जगह जो अफ्रीकन अमेरिकन का निवास्य क्षेत्र था वहाँ बड़ी मात्रा में दिखी। इसके खिलाफ आन्दोलन लुईस गिब्स ने शुरू किया जो लैव कैनाल की सफाई को लेकर था। जिसमें राष्ट्रीय सहकारी संस्थाओं ने मदद की, द सिटीजन क्लीयरिंग हाऊस फॉर हजारडियस वेस्टस ( CCHW ), 1980 तक बहुत सी संस्थाओं व समूहों के दबाव के कारण उत्तरी अमेरिका के सरकार ने हजारों लोगों को दूसरे स्थानों पर स्थानान्तरित कर दिया और उसे “ प्राकृतिक संकट क्षेत्र " घोषित कर दिया।

यूरोप में भी, औद्योगिकरण को लेकर बुरे परिणामों के लिए सतर्कता उठी और पर्यावरण के लिए कुछ राजनीति कार्यशील पार्टियाँ आयी। न्यूजीलैण्ड में एक " वैल्यू पार्टी " का जन्म 1960 में हुआ जो पहली ' ग्रीन पार्टी " के रूप में जानी गयी।

1978 में, जर्मनी के व्यक्तियों के समूहों ने एक " ग्रीन पार्टी " बनाई। जर्मनी की " ग्रीन पार्टी " अन्य यूरोपीय देशों के लिए एक दीप की तरह साबित हुई। परिणामस्वरूप " ग्रीन पार्टी " ने अपना शक्तिशाली अस्तित्व बेल्जियम, इटली और स्वीडन में बना डाला। गुहा के अनुसार " जर्मन ग्रीन अपनी राजनीतिक जीत के लिए और नैतिक चुनौतियों से ज्यादा अच्छा था, जो औद्योगिक सभ्यता को सरकार के सामने लाया।

 

दक्षिण में आन्दोलन

सामान्यतः यह विश्वास है कि पर्यावरणवाद एक आन्दोलन की तरह अमीर व औद्योगिक राष्ट्रों से उत्पन्न हुआ है। फिर भी दशक समकालीन कुछ तथ्य गवाह है कि दक्षिण में भी पर्यावरण को लेकर चिन्ताएँ थी। ब्राजील, केन्या, भारत ओर थाइलैण्ड जैसे देशों में भी पर्यावरणवाद की लहरे उठी थीं।

ब्राजील 1960 1984 के बीच अन्धाधुंध वनों की कटाई हुई थी, जिससे वनोन्यूलन की एक बड़ी समस्या और आयेजन का एक बड़ा भाग रेगिस्तान में बदल गया था। 1976 में यहाँ एक बड़ा पर्यावरण आन्दोलन हुआ जिसका नाम “ चिको " था। इसका नेतृत्व फ्रांस के चिको मेन्डेस ने किया था जो पेड़ों से रबड़ निकालने वाले समूह के नेता थे। यह आन्दोलन 10 मार्च 1976 में शुरु हुआ। यह आन्दोलन रैंचर्स और लोगर्स के खिलाफ हुआ जिन्होंने दस हजार रबड़ टैपर्स ( रबड़ निकालने वाले ) को अपने स्थानों से हटा दिया था। इन रैचर्स ने लगभग 6 मिलियन जगह टैपर्स से विकास के नाम पर लेकर उन पर अपना स्थायित्व कर लिया। मेन्डेस का पुरुषों, महिलाओं और बच्चों ने साथ दिया जो हाथ से हाथ मिलाकर एक कड़ी की तरह चलते रहे। दिसम्बर 1988 में चीको मेन्डेस का किसी भू - स्वामित्व द्वारा खून कर दिया गया लेकिन वे अपना प्रभाव छोड़ कर गए था जो केन्या में महिला, प्रोफेसर वंगारी मथाई द्वारा एक आन्दोलन शुरु किया जिन्हें हॉल ही में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है। बहुत से पर्यावरण आन्दोलन इतिहास में उदाहरण हैं।

भारत में पर्यावरण को लेकर कुछ महत्त्वपूर्ण आन्दोलन हुए। एक सबसे महत्त्वपूर्ण आन्दोलन " चिपको आन्दोलन " गढ़वाल व कुमायूँ क्षेत्र में 1970 में सुन्दरलाल बहुगुणा व चंडी प्रसाद बट्ट द्वारा शुरू किया गया इसमें पेड़ों की सुरक्षा को लेकर चिन्ताएँ व्यक्त की गई। लोग इकट्ठे हुए जिसमें गाँव के महिलाओं व पुरुषों ने वहाँ के पेड़ों को अपने गले लगा लिया था। यद्यपि ये आन्दोलन उनके लिए भी था जो बाहर से आये थे व वाणिज्यिक रूप में उनका शोषण कर रहे थे। जिससे पर्यावरण को लेकर एक जागरुकता पैदा हुई।

 

दूसरा मुख्य आन्दोलन मेधा पाटेकर द्वारा नर्मदा बचाओ ' आन्दोलन था जो एक महिला समाजकर्ता थी, एक और बड़ा आन्दोलन नर्मदा नदी पर बाँध बनाने के विरूद्ध था। उसमें सरकारी योजना के अनुसार 30 बड़े, 135 मध्यम, 3000 छोटे बाँध बनाने की योजना थी, नर्मदा नदी व उसकी सहायक नदियों पर जिसका परिणाम यह हुआ लोगों को उनके स्थानों से हटाया गया और उनकी भूमि को बर्बाद कर दिया। 1250 से भी अधिक गाँव तबाही की नोंक पर है।

 

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