4th Semester History | History of India 1700-1950 | Unit 3 | औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का निर्माण | DU SOL NCWEB Study Notes | BA PROG,BA,HONS

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4th Semester History

History of India C. 1700 – 1950

Unit 3 - औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का निर्माण

भू राजस्व बस्तियां, धन की समाप्ति, कृषि व्यावसायिकरण, विऔद्योगीकरण

 



ब्रिटिश राज के आर्थिक प्रभावों की समीक्षा 


ब्रिटिश राज के आर्थिक प्रभाव - अंग्रेजी सत्ता की स्थापना के बाद आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में आमूलचूल परिवर्तन हुए , अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों के कारण भारत की सम्पद्रा का निष्पादन होने लगा , परम्परागत उद्योग - धन्धे विनाश की ओर अग्रसर होने लगे तथा नए उद्योग पनपने लगे ।


भारतीय मूल के उद्योगों के नष्ट होने से यहाँ की अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमराने लगी और सोने की चिड़िया कहा जाने वाला देश अभावग्रस्त देश में परिणित होने लगा । अंग्रेजों से पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित थी । कई प्रमुख शहर , बन्दरगाह तथा उद्योग धन्धे विकसित थे , परन्तु अधिकतर लोग कृषि तथा ग्रामीण उद्योग - धन्धों पर आश्रित थे ।


भारतीय अर्थव्यवस्था अपने आप में पूर्णरूपेण सुदृढ़ थी । कपड़ा , मिट्टी के बर्तन , धातुओं के बर्तन , कृषि यन्त्र तथा अन्य दैनिक उपभोग की वस्तुओं की खपत गाँवों अथवा आसपास के बाजारों में ही हो जाती थी । इसके अलावा भारत के प्रमुख शहरों में भी इनकी खपत पर्याप्त थी । इतना ही नहीं यहाँ के माल की माँग विदेशों में भी थी । व्यापार करने की दृष्टि से पुर्तगाली , डच , फ्रांसीसी तथा अंग्रेजों ने अपने - अपने केन्द्र यहाँ पर स्थापित किए और अंग्रेजों ने अपनी योजना में आशातीत सफलता प्राप्त की । भारत का आर्थिक शोषण किया जाने लगा ।


आर्थिक शोषण के सहारे अंग्रेजों ने पर्याप्त धन जुटा लिया। भारत के अधिकतर भाग के अधिकतर संसाधनों पर अंग्रेजों का एकाधिकार हो गया । उनके इस एकाधिपत्य का सबसे बुरा प्रभाव बंगाल के बुनकरों पर पड़ा । जो श्रमिक वस्त्रस उद्योग से जुड़े थे । उन्हें कम कीमत पर ही कम्पनी में काम करने को विवश किया जाने लगा । देशी उद्योगपतियों के यहाँ उन्हें काम करने से रोका जाने लगा।


आज्ञा का उल्लंघन करने वालों को कठोर दण्ड दिया जाने लगा । अंग्रेजों की शोषण की नीति का सबसे अधिक यह प्रभाव पड़ा कि भारतीय सम्पदा का निष्कासन ' होने लगा।


1. धन निष्कासन का स्वरूप - जो धन भारत से इंग्लैण्ड को भेजा जाता था और जिसके बदले में भारत को कुछ भी प्राप्त नहीं होता था , उसे ही सम्पदा का निष्कासन कहा गया , प्राप्त होने वाले भारतीय धन से अंग्रेज व्यापारी माल खरीदते और इंग्लैण्ड तथा अन्य स्थानों पर बेचते थे । इस प्रकार अंग्रेज दोनों प्रकार से धन प्राप्त कर रहे है । भारत से धन का निष्कासन 1757 ईस्वी में बंगाल से प्रारम्भ हुआ । एक अनुमान के आधार पर 1757-65 ई . के मध्य करीब 60 लाख पौण्ड की रकम इंग्लैण्ड ले जाई गई थी , कम्पनी को व्यापार के तहत प्राप्त मुनाफा इसके अतिरिक्त था । 1765 ई . में बंगाल की दीवानी प्राप्त होने से कम्पनी को अतिरिक्त धन प्राप्त करने का स्त्रोत हाथ लग गया । अंग्रेजों को जो धन बंगाल से प्राप्त होता था उसे अंग्रेज लोग निवेश पद्धति से इंग्लैण्ड भेज देते थे।


निवेश पद्धति के अलावा अंग्रेजों के पास अन्य कई रास्ते भी थे । जिनके मार्फल माल इंग्लैण्ड भेजा जाता था । बंगाल के नवाबों , उनके अधिकारियों , जमींदारों , व्यापारियों , जनता से कर वसूली के रूप में , गृह - प्रभार , सार्वजनिक भारतीय कृषि का व्यय , सुरक्षा व्यवस्था पर सैनिकों पर किया गया खर्च आदि मदों के रूप में पर्याप्त मात्रा में अंग्रेज लोग धन वसूलते थे । इसके अलावा रेलों , बैंकों , उद्योगों के मार्फत भी भारत का धन इग्लैण्ड में जाने लगा , जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत की अर्थव्यवस्था दिन पर दिन कमजोर होती चली गई ।


इसके बारे में मद्रास बोर्ड ऑफ रेवेन्यू के अध्यक्ष ने टिप्पणी करते हुए कहा कि " हमारी व्यवस्थी बहुत कुछ स्पंज की भाँति है , जिसके जरिये गंगा तट से सारी अच्छी चीजों को सोख लिया जाता है और टेम्स नदी के किनारें निचोड़ दिया जाता है , भारत में कितना धन इंग्लैण्ड पहुँचा इस बारे में निश्चित तौर पर कुछ भी कहना कठिन है , इस बारे में अलग - अलग विद्वानों के अलग - अलग विचार हैं । जॉर्ज विगनेर के अनुसार 1834-51 ई . के समयांतराल के मध्य प्रतिवर्ष 42,21,611 पौंड प्रतिवर्ष के हिसाब से धन इंग्लैण्ड भेजा जाना था । इसी क्रम में विद्वान डिस्वी का मानना है कि 1757-1815 ई . तक करीब करोड़ पौंड इंग्लैण्ड पहुँच चुके थे । आर.सी. दत्त के अनुसार 1833-92 ई . मध्य यह राशि 359 करोड़ थी , जबकि अन्य एक अनुमान के आधार पर 1860-1900 के मध्य प्रतिवर्ष की दर से 40 करोड़ रूपए भेजे गए । कुल मिलाकर अंग्रेजों द्वारा इस प्रकार धन निर्गमन से भारत की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर हो गई और अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा । "


2. धन निर्गमन का दुष्प्रभाव - अंग्रेजों के द्वारा शुरू की गई इस धन निर्गमन प्रणाली से भारत का आर्थिक ढाँचा पूर्णरूपेण खोखला हो चुका था । लोगों का जीवनस्तर गिर चुका था । उद्योग धन्धे नष्ट प्रायः हो चुके थे । कई बार अकाल पड़े जिनमें लाखों व्यक्तियों की जान गई । अनेक विद्वानों की मान्यता है कि 19 वीं शताब्दी के अन्तिम दौर में पड़े अकालों की संख्या पिछले सौ वर्षों में पड़े अकालों से भी चार गुना अधिक थी । लोगों की कृषि पर निर्भरता का अनुपात बढ़ता गया । भूमिहीन श्रमिकों की बाढ़ सी आ गई ।


बंगाल की लूट और तर्ज्ञानत अकाल का विवरण देते हुए रजनीपान दत्त ने लिखा है कि लूट से होने वाली आय को दिनों - दिन तेजी के साथ बढ़ाने की माँग की जाती थी , जिसके परिणामस्वरूप किसानों के पास बीज के लिए रखा गया अनाज और उनके बैलों को छीन लिया जाता था। किसानों पर्याप्त मात्रा में अपने पशुओं के लिए चारा तक उपलब्ध नहीं करा पाते थे । वी . जी . काले के अनुसार अन्य देशों की तुलना में पशुओं की संख्या अत्यन्त कम होने के कारण यहाँ गरीबी बढ़ गई और इसका मुख्य कारण था “ भू - राजस्व की अधिकता " , दादाभाई नीरोजी ने धन निष्कासन की प्रवृत्ति को अंग्रेजों द्वारा भारत को रक्त चूसने ' की संज्ञा दी ।


3. भू - राजस्व व्यवस्था - अंग्रेजों ने अपनी आर्थिक स्थिति और अधिक सुदृढ़ करने के लिए भू - राजस्व व्यवस्था में आमूलवूल परिवर्तन किए , अधिक - से - अधिक राजस्व प्राप्त करना ही उनका मूल उद्देश्य था । इसलिए उन्होंने भू - राजस्व व्यवस्था में कई परिवर्तन किए , दीवान प्राप्त कर लेने के बाद कम्पनी ने अपने को बंगाल - विहार का भू - स्वामी समझा तथापि लगान वसूल करने का कार्य बंगाल के डिप्टी दीवान के पास रहने दिया अधिक - से - अधिक धन प्राप्ति के लिए अंग्रेजों ने जो भू - राजस्व व्यवस्था का निर्धारण किया था , उसको सही ढंग से चलाने तथा अधिकाधिक लाभ कमाने की दृष्टि से जो राजस्व प्राप्ति के साधन बनाए , वे निम्नखित थे|


4. सार्वजनिक ऋण - साम्राज्य विस्तार के लिए कम्पनी द्वारा किए गए युद्धों तथा अन्य व्यय के लिए इंग्लैण्ड सरकार से भारत द्वारा समय - समय पर लिए गए ऋणों पर बड़ी तादाद में व्याज की राशि वसूल की 1792 ई . में यह ऋण व्याज के साथ 70 लाख , 1799 में एक करोड़ तथा 1857 में बढ़कर 6-90 करोड़ हो गया , ऋण की राशि बढ़ते - बढ़ते 1900 में 22-40 करोड़ पौण्ड तथा 1913 तक 27-40 करोड़ पौंड़ तक पहुँच गई तथा 1939 तक यह ऋण राशि 88-42 करोड़ तक पहुँच गई थी । 1858 ई . के बाद कम्पनी सरकार के स्थान पर इंग्लैण्ड सरकार का आधिपत्य हो जाने पर कम्पनी पर चढ़ा हुआ ऋण भारत का ऋण हो गया और कम्पनी की देनदारी भारत सरकार के नाम लिख दी गई । सेवामुक्त अंग्रेज अधिकारियों को दी जाने वाली पेंशन की अदायगी भी कम्पनी सरकार को करनी होती थी । हिस्सेदारों को दिया जाने वाला लाभांश एवं लंदन प्रतिष्ठान का समस्त व्यय भारत सरकार से वसूल किया जाता था । 1858 ई . के बाद कम्पनी के हिस्सेदारों को दिया जाने वाला मुआवजा भी नई सरकार पर मढ़ दिया गया ।

 

5. स्थायी व्यवस्था से लाभ - मार्शमैन ने इस व्यवस्था को साहस , बहादुरी तथा बुद्धिमान का कार्य बताया है , उसके कथानुसार इस व्यवस्था के वृद्धिजनक प्रयास के कारण जनसंख्या में वृद्धि हुई , कृषि का विस्तार हुआ , लोगों की आदतों में सुधार का गुण देखने में आया । कुछ अच्छे प्रभाव निम्नलिखित थे । जो इस बन्दोबस्ती व्यवस्था के फलस्वरूप दृष्टिगत हुए । 


6. बंगाल की स्थिति में सुधार - बंगाल के किसानों को यह विश्वास हो गया कि एक निश्चित राशि जमा कराते रहने से भूमि पर उनका मालिकाना हक थाना रहेगा , फलतः किसानों ने खेती पर अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया । कृषि उत्पादन अच्छा होने से आर्थिक समपन्नता आने लगी । बंगाल एक सम्पन्न प्रदेश बन गया सम्पन्नता के कारण शिक्षा व साहित्य का आशातीत विकास हुआ ।


7. कम्पनी को आर्थिक लाभ- बन्दोबस्ती का व्यवस्था से कम्पनी को सबसे अधिक लाभ हुआ ।  उसकी आर्थिक स्थिति दिन पर दिन मजबूत होती गई । उसके समक्ष आर्थिक अनिश्चिता की स्थिति खत्म हो गई । लगान वसूली की निश्चित व्यवस्था से लगान वसूल करने में होने वाला अपव्यय भी समाप्त हो गया । कम्पनी के वे कर्मचारी जो लगान वसूली में नियुक्त थे , उन्हें अन्य प्रशासनिक कार्यों में लगाया । जिससे कम्पनी की कार्यशैली में और अधिक गतिशीलता आई ।


8. नए जमींदार वर्ग का उदय - नए जमींदारों के वर्ग को पैदा करने में इस बन्दोबस्ती व्यवस्था का प्रमुख हाथ रहा। यह वर्ग नई भू - व्यवस्था पर आश्रित था । जो वर्ग सुविधा सम्पन्न था वह अंग्रेजों का सहयोगी बन गया । अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए उसने भारतीय जनता के मध्य ' प्रतिरोध ' की भूमिका निभाकर सदैव अंग्रेजों का समर्थन किया । इस वर्ग ने स्वाधीनता संग्राम में भी अंग्रेजी हितों की रक्षा की ।


9. जमींदारों को लाभ - जमीदारों को इस व्यवस्था से सुदृढ़ लाभ प्राप्त हुआ। सबसे मुख्य बात तो यह रही कि अब जमीन पर उनका पैतृक स्वामित्व स्थापित हो गया । इससे उत्तरोत्तर उनकी आर्थिक व्यवस्था सुदृढ़ होती चली गई । लगान से वसूले जाने वाले धन का एक हिस्सा उन्हीं के अधिकार में चला गया ।


10. कृषि का विकास - आवश्यक रूप से लगान देने का परम्परा ने किसानों में कृषि के प्रति और अधिक लगाव पैदा किया । फलतः वे कृषि की ओर अधिक ध्यान देने लगे थे , वे अधि क - से - अधिक पैदावार बढ़ाने में उपक्रम करने लगे । जितनी अधिक फसल होगी उतना ही लाभ होगा , इससे प्रभावित होकर उन्होंने बंजर भूमि को भी उपयोग में लाना शुरू कर दिया ।


11. स्थायी बन्दोबस्ती व्यवस्था के दोष - स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था से जहाँ कई लाभ हुए , वहीं कुछ पहलुओं को लेकर इसके नाकारात्मक प्रभाव भी देखने में आए ।


12. सम्पदा का अपवाह- भारत का धन विभिन्न प्रकार से विदेशों में भेजा जाने लगा , जिसे सम्पदा का अपवाह अथवा सम्पदा का निष्कासन कहा जाता है । 1757 ई . से पूर्व अंग्रेज तथा यूरोपीय व्यापारी विदेशों से धन भारत में लाते थे । इसकी वजह यह थी प्लासी विजय से पूर्व यूरोप में  भारतीय सामान की माँग अत्यधिक थी , विशेषकर सूती तथा रेशमी वस्त्रों की , यूरोप के व्यापारी बाहर से धन लाकर इन वस्तुओं को खरीदते थे और विदेशी बाजारों में उच्च मुनाफे पर बेचते थे । परन्तु बंगाल में कम्पनी की स्थापना में स्थिति बदल गई । परिणामस्वरूप विदेशों से धन आने के बदले यहाँ से ही धन विदेशों में जाने लगा जिसे सम्पदा का अपवाह कहा गया।


रैयतवाड़ी व्यवस्था को समझाते हुए उसके प्रमुख उपबन्धों एवं उसके परिणामों का वर्णन  


रैयतवाड़ी व्यवस्था- " - " रैयत " का अर्थ प्रजा या सामान्य किसानों से लगाया जाता है । वी.जी. काले के अनुसार जिसके पास दो बैल , हल और एक गाड़ी होती है और जिसे वह फालतू समय में किराये पर दुलाई के काम में लेता है " रैयत " कहलाता है , किसानों के साथ जो समझौता लगान के सम्बन्ध में किया गया उसे " रैयतवाड़ी " कहा गया ।


भारत में रैयतवाड़ी व्यवस्था की स्थापना 1812 ई . में हुई , रैयतवाड़ी के बारे में रजनीपामदत्त ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है - इस बन्दोबस्त की खास बात यह थी कि सराकर को किसानों के साथ सोधे - सीधे कोई बन्दोबस्त करना चाहिए जो स्थायी न हो अर्थात् जिसमें हमेशा कुछ वर्षों के बाद संशोध न किया जा सके । इस प्रकार लूट के धन को किसी बिचौलिए में बाँटने के बजाय स्वयं ही पूरा हड़प लिया जाए । मद्रास में यह व्यवस्था 1820 ई . में तथा 1825 ई . में मुम्बई में लागू की गई । 1854 ई . में पहला भूमि संगठन कानून बनाया गया एवं 1867 एवं 1887 ई . के कानूनों के तहत पंजाबी किसानों को चिरस्थायी कास्तकारों के रूप में मान्यता दी गई । इसके आधार पर उन्हें अपनी भूमि बेचने , गिरवी रखने और उपपट्टे रखने का अधिकार था


रैयतवाड़ी व्यवस्था के प्रमुख उपबन्ध 


1. प्रत्येक रैयत बिना किसी पारस्परिक गारण्टी के व्यक्तिगत रूप से कर देने योग्य था।

2. राजकीय अधिकारियों एवं लघु उत्पादकों के मध्य विचौलिये की भूमिका खत्म हो गई अर्थात् सरकार ही सारा लगान वसूल करती थी ।

3. रैयतवाड़ी प्रथा का मुख्य विन्दु यह था कि भूमि का पट्टेदार जब चाहे उचित समय नोटिस देकर जो भूमि उसके पट्टे पर थी , उसे या उसके किसी भाग को छोड़ सकता था और इस प्रकार सरकारी मालगुजारी अदा करने के दायित्व से बच जाता था ।

4. लगान की अदायगी न होने पर भूमि जब्त की जा सकती थी

5. भू - राजस्व दरों की समय - समय पर ( 30 वर्षों के बाद ) पुनसंमोक्षा होती थी ।

6. लगान भूमि के मूल्य के आधार पर तय किया जाए न कि उसमें पैदा होने वाली फसल के आधार पर


PDF NOTES of 4th Semester History भारत का 

इतिहास 1700-1950 Unit 1 to 8 Notes in 

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