4th Semester History | History of India 1700-1950 | Unit 4 | 1857 का विद्रोह- कारण,परिणाम,प्रकृति | DU SOL NCWEB Study Notes | BA PROG,BA,HONS

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4th Semester History

History of India C. 1700 – 1950

Unit 4

1857 का विद्रोह - विद्रोह की शुरुआतविद्रोह के कारणविद्रोह के परिणामविद्रोह की प्रकृति



1857 का स्वतंत्रता संग्राम- 1857 का विद्रोह ब्रिटिश शासन से भारतीय जनता की मुक्ति के संघर्ष के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण अध्याय में से एक हैइसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी और कई बार तो ऐसा लगने लगा कि भारतवर्ष में ब्रिटिश साम्राज्य का अंत हो जाएगा यद्यपि यह एक महक से पानी विद रोग के रूप में शुरू हुआ था किंतु जल्दी ही इसने उत्तर भारत के विस्तृत क्षेत्र की जनता एवं कृषक वर्ग को अपने अंदर शामिल कर लिया|

 

1857 के विद्रोह के कारण -

 

1. किसानों का शोषण: बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद अंग्रेजों ने ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने और भारत को लूटने के लिए एक से बढ़कर एक दमनकारी नीतियों को प्रस्तुत किया जैसे रजवाड़ी और मालवाड़ी जो कि बड़े स्तर पर किसानों के लिए घातक साबित हुईकिसानों से बड़े स्तर पर लगान वसूला जा रहा था और उनसे जबरदस्ती मनपसंद खेती करवाई जा रही थी जिससे उनके खेत की उपजाऊ क्षमता खत्म हो रही थी और जिसके कारण लगाने नहीं भर पा रहे थे|

किसानों से प्राप्त लगान में से 10 / 11 का हिस्सा उन्हें कंपनियों को देना पड़ता था ऐसा नहीं कर पाने पर उनकी संपत्ति उनके हाथ से निकल जाती थीअन्य भूमि व्यवस्था भी बेहतर नहीं थीहर स्थिति में किसानों को अपनी हैसियत से ज्यादा लगान भरना पड़ता था और कभी कोई प्राकृतिक विपदा जैसे सूखा बाढ़ हुआ तो उन्हें बाध्य होकर महाजनों से कर्ज लेना पड़ता था जो उनसे अधिक सुध लेते थेप्रशासन के निरंतर पर अधिकारों की कृषि पर अत्याचार करते थे और छोटे से छोटा बहाना बनाकर इनसे पैसा ऐड लेते थे|

अधीनस्थ कर्मचारियों न्यायालय तथा जनों के बीच इस गठबंधन से ऐसी स्थिति पैदा हो गई जिसके कारण किसान उग्र हो उठे और सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए किसी भी अवसर का स्वागत करने के तैयार हो गए|

 

2. रियासतों का विलय: ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने सहयोगियों को भी नहीं बख्शा1856 में नवाब वाजिद अली शाह के सुप्रशासन के बहाने अवध का देसी राज्य भी डलहौजी ने अंग्रेजी शासन में मिला लियाइससे पहले 1848 में सातारा और 1854 में नागपुर तथा झांसी को इसी बहाने मिला लिया था कि उनका कोई वंशानुगत अधिकारी नहीं था इस जिले में इन राज्यों के शासक इतने गुस्सा हो उठे की झांसी की रानी और अवध की बेगम अंग्रेज के कट्टर दुश्मन बन गए|

स्थिति और खराब हो गई जब अंग्रेजों ने नानासाहेब को जो पेशवा बाजीराव द्वितीय के दो तक पुत्र थे पेंशन देने से इनकार कर दियाअवध के विलय से सिपाहियों में भी रोष था क्योंकि अधिकांश सिपाही अवध के ही निवासी थे इस कार्रवाई से उनके देश प्रेम और गौरव को ठेस पहुंची इसके अतिरिक्त उनके रिश्तेदार को ज्यादा देना पड़ता था ऐसे सिपाहियों के आमदनी पर भी बुरा प्रभाव पड़ा जिसके कारण सिपाही 1857 के विद्रोह में पूर्ण रूप से अपना योगदान देने के लिए तैयार हो गए|

 

3. अंग्रेजी शासन का विदेशीपन: ब्रिटिश शासन की लोकप्रियता का दूसरा कारण था उनका पराया बन वे भारतीयों से कभी मेलजोल नहीं बढ़ा देते यहां तक कि उच्च वर्ग के भारतीयों का भी तिरस्कार करते थ भारतवर्ष में बसने नहीं आए थे बल्कि सिर्फ यहां से पैसा घर ले जाने आए थेइसी कारण भारतीयों ने भी कभी उनके साथ अनिश्चितता नहीं बढ़ा पाएऔर उनके द्वारा किए गए दुर्व्यवहार के कारण भारत की जनता अंग्रेजों से बहुत परेशान थी जिसके कारण उन्होंने 1857 के विद्रोह में शामिल होना ठीक समझा|

 

4. सिपाहियों पर प्रभाव: 1857 की शुरूआत सिपाही विद्रोह से हुई थी । ये सिपाही मुख्यतः उत्तर और उत्तर - पश्चिम भारत के कृषक वर्ग से आय थे । जैसा कि हमने देखा है ईस्ट इंडिया कंपनी की शोषक नीतियों से कृषक वर्ग गरीबी तथा बरबादी की ओर अग्रसर हो रहा था । इसका प्रभाव सिपाहियों पर भी पड़ा । वस्तुतः इनमें से अधिकांश कृषि से प्राप्त आय की कमी को दूर करने के लिए सेना में भरती हुए थे जैसे - जैसे समय बीतता गया उन्होंने अनुभव किया कि ऐसा कर पाना उनके वश में नहीं है।

उनको 7 से 8 रूपये का मासिक वेतन प्राप्त होता था जिसमें .से उन्हें अपने भोजन वर्दी तथा व्यक्तिगत समानों के वहन के लिए भी चुकाना पड़ता था । एक भारतीय सिपाही का निर्वाह व्यय भारत में ब्रिटिश सिपाही पर आने वाले व्यय से एक तिहाई था। उसके अलावा भारतीय सिपाहियों के साथ ब्रिटिश अधिकारी अभद्र व्यवहार करते थे । उन्हें हमेशा गाली दी जाती थी और अपमानित किया जाता था । भारतीय जवान अपनी बहादुरी और महान् युद्ध सोमर्थ्य के बावजूद सूबेदार के पद से ऊपर नहीं जा पाते थे जबकि इंग्लैंड का एक नव - नियुक्त सैनिक सीधा पदोन्नति पा जाता था ।

 

5. धर्म का खतरा: ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय जनता को अपने धर्म के लिए ब्रिटिश सत्ता द्वारा खतरा महसूस हो रहा थामिशनरियों के धर्म परिवर्तन के रवैया तक कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने लोगों के मन में यह डर पैदा कर दिया थाकि उनका धर्म खतरे में हैकई स्थानों से ईसाई धर्म में परिवर्तन के समाचार मिले|

सरकार चर्च को अपने खर्च से चलाती थी और कई जगह मिशनरियों को पुलिस सुरक्षा भी प्रदान कर दी थीइसके बाद सिपाहियों को अपने जाति चिन्ह तिलक आदि लगाने पर पाबंदी लगा दी गई 1856 में एक एक्ट पास हुआ जिसके तहत नए भर्ती होने वाले जवानों को आवश्यकता पड़ने पर विदेश में भी सेवा करने की शपथ लेनी पड़ती थी|

सबसे सिपाहियों की रूढ़िवादी मान्यताएं उठी और उन्होंने कई बार इन नीतियों का विरोध जोरदार प्रतिक्रिया के रूप में कियाजैसे उदाहरण के लिए-

1824 में जवानों के 40 में रेजिमेंट ने  बैरकपूर  में था समुद्री रास्ते में वर्मा जाने से इनकार कर दिया क्योंकि उनका धर्म उन्हें समुद्र के पार करने की अनुमति नहीं देता था उसका जवाब में अंग्रेजों ने काफी बेरहमी दिखाई रेजिमेंट को विघटित कर दिया था कुछ नेताओं को मौत के घाट उतार दिया|

1844 में 7 बटालियन ने वेतन और भत्ते के प्रश्न पर विद्रोह कर दिया |

यहां तक कि 1837 से 1842 के अफगान युद्ध के समय सैनिक एकदम विद्रोह पर उतर आए थे|

 

6. तत्कालीन कारण: वातावरण इतना उत्तेजनापूर्ण था कि छोटी सी वजह भी विद्रोह का कारण बन सकती थी । ग्रीज लगे कारतूस का प्रसंग अपने आप में इतना गंभीर कारण था कि यह कारण अकेला ही विद्रोह की शुरूआत कर सकता था । यह सूखी लकड़ियों के ढेर के समान था जिसे आग लगाने के लिए चिंगारी की आवश्यकता थी । नए एनफिल्ड राइफल की कारतूसें जिन्हें सेना में तुरंत लाया गया था उनको ढकने के लिए ग्रीज लगा पेपर होता था जिसे रायफल में भरने से पहले दाँत से काटना पड़ता था ।

कई बार ग्रीज गाय व सूअर की चर्बी से बना होता था । इससे हिन्दू और मुस्लिम सिपाही क्रुद्ध हो उठे और उन्हें विश्वास हो गया कि सरकार जानबूझकर उनके धर्म को नष्ट करना चाहती है । यही इस विद्रोह का तात्कालिक कारण बना ।

 

विद्रोह का उद्भ-


27 मार्च 1857 को बैरकपुर में तैनात एक युवा सैनिक मंगल पांडे ने अकेले ही ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला करके बगावत कर दी । उसे फाँसी पर लटका दिया गया और इस घटना पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया । परन्तु इससे सिपाहियों में फैले असतोष तथा क्रोध का पता चल गया ।

इस घटना के एक महीने के अंदर 24 अप्रैल को मेरठ में तैनात देशी घुड़सवार सेना के नब्बे लोगों ने चर्बी लगे कारतूसों को इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया । उनमें से 85 को बर्खास्त कर दिया गया तथा 9 मई को 10 साल के लिए जेल की सजा दे दी गई । इस पर शेष भारतीय सिपाहियों में जोरदार प्रतिक्रिया हुई और अगले दिन 10 मई को मेरठ में तैनात पूरी भारतीय फौज ने विद्रोह कर दिया ।

अपने साथियों को मुक्त कराकर तथा ब्रिटिश अधिकारियों को मार कर उन्होंने दिल्ली की ओर कूच करन का निर्णय लिया । इससे पता चलता है कि उनके दिमाग में ब्रिटिश शासन का कोई न कोई विकल्प था ।

दूसरी बात जिससे यह साफ पता चलता है कि यह एक महज सिपाही विद्रोह ही नहीं था वह यह कि लोगों ने जैसे ही सिपाहियों के अधिकारियों पर गोली चलाने की आवाज सुनी आस - पास के सैनिक बाजारों को लूटना शुरू कर दिया और अंग्रेजों के बंगलों पर आक्रमण कर उन्हें जला डाला ।

आस - पास के गाँवों के गुर्जर शहर में घुस आये और विद्रोह में शामिल हो गए । दूरसंचार के तार काट दिए गये तथा घुड़सवारों को जो संदेश लेकर दिल्ली जाते थे रोक दिया गया । जैसे ही मेरठ के सैनिक दिल्ली पहुॅचे वहाँ भी भारतीय सेना ने बगावत कर दी और विद्रोहियों में शामिल हो गए ।

उन्होंने वृद्ध बहादुर शाह जफर को भारत का सम्राट घोषित कर दिया । इस प्रकार 24 घंटे के अंदर एक मामूली विद्रोह से शुरू होकर यह पूरे तौर पर राजनीति बगावत में परिवर्तित हो गया ।

 

अगले एक महीने में बंगाल की पूरी फौज ने बगावत कर दी । सारा उत्तर तथा उत्तर पश्चिम भारत शस्त्र लेकर अंग्रेजों के विरूद्ध खड़ा हो गया । अलीगढ़ मैनपुरी बुलंदशहर इटावा मथुरा आगरा लखनऊ इलाहाबाद बनारस शाहाबाद दानापुर तथा पूर्वी पंजाब जहाँ भी भारतीय सैनिक थे उन्होंने विद्रोह कर दिया ।

 

सेना के विद्रोह करने से पुलिस तथा स्थानीय प्रशासन भी तितर - बितर हो गया । इसके तुरंत बाद शहर तथा गाँवों में विद्रोह शुरू हो गये । लेकिन कई स्थान ऐसे भी थे जहाँ के लोग सेना के विद्रोह से पहले से बगावत कर चुके थे ।

 

जहाँ भी विद्रोह भड़का सरकारी खजाने को लूट लिया गया गोले बारूद जब्त कर लिए गए बैरकों और न्यायालयों को जला डाला गया और कारागार के दरवाजे खोल दिए गए । गाँवों में कृषकों तथा बेदखल किए गए जमींदारों ने महाजनों तथा नए जमींदारों पर जिन्होंने उन्हें बेदखल किया था हमला कर दिया ।

 

उन्होंने सरकारी दस्तावेजों तथा महाजनों के बहीखातों को नष्ट कर दिया । उन्होंने अंग्रेजों के बनाए न्यायालयों राजस्व कार्यालयों राजस्व दस्तावेजों तथा थानों को नष्ट कर दिया । इस तरह विद्रोहियों ने उपनिवेशवादी शासन के सभी चिन्हों को मिटाने का प्रयास किया ।

जिन क्षेत्रों के लोगों ने बगावत में सक्रिय भाग नहीं लिया उन लोगों ने भी अपनी सहानुभूति विद्रोहियों को दी और उनकी सहायता की ये कहा जाता था कि विद्रोही सिपाहियों को अपने साथ भोजन नहीं ढोना पड़ता था क्योंकि गाँव वाले उन्हें भोजन खिलाते थे ।

दूसरी तरफ ब्रिटिश फौजों के प्रति जनता का विद्वेष भी स्पष्ट था । उन्होंने उन्हें किसी भी तरह की सहायता अथवा सूचना देने से इंकार किया और कई अवसर पर उन्होंने ब्रिटिश फौजों को गलत सूचना देकर गुमराह भी किया ।

 

मध्य भारत में भी जहाँ कि शासक ब्रिटिश शासन के प्रति वफादार थे फौजों ने विद्रोह कर दिया । हजारों की संख्या में इंदौर सैन्यदल इंदौर में विद्रोही सिपाहियों के साथ हो गए । इसी प्रकार से 20,000 से भी ज्यादा ग्वालियर की सैन्यदल तात्या टोपे तथा झाँसी की जानी के साथ चले गए ।

सारे उत्तर और मध्य भारत में आगरा तथा लखनऊ तक ही सीमित हो गयी थी । अन्य जगह अंग्रेजी फौज तथा अंग्रेजी शासन ताश के पत्तों की तरह बिखर गए ।विद्रोह की सबसे ध्यान देने वाली बात हिन्दू - मुस्लिम एकता थी । मेरठ व दिल्ली के हिन्दू सिपाहियों ने एकमत होकर बहादुर शाह को सम्राट घोषित किया ।

सभी हिन्दू और मुस्लिम सिपाहियों ने सम्राट को आधिपत्य स्वीकार किया और विद्रोह के बाद " दिल्ली चलो " का आह्वान किया । हिन्दू और मुस्लिम ने साथ मिलकर लड़ाई लड़ी और साथ ही मरे । जहाँ सिपाही पहुँचते हिन्दू भावनाओं के प्रति आदर करते हुए गोहत्या पर प्रतिबंध लगा दिया जाता था ।


विद्रोह की प्रमुख घटनाएं-



1857 में भारत की नियमित सेना में लगभग 45,000 यूरोपीय और 232,000 भारतीय थे । इस समय अधिकांश यूरोपीय इकाइयां कब्जे में लिए गए नए क्षेत्र फैलाव में केंद्रित थी । अतः इस समय कलकत्ता और दिल्ली के बीच मात्र पाँच यूरोपीय रैजिमैंट ही उपस्थित थे । मेरठ की विद्रोही सेना 11 मई को दिल्ली पहुंच गई । और पेंशन पर जी रहे मुगल बादशाह बहादुर शाह- II को विद्रोह का नेतृत्व संभालने को कहा तथा उन्हें शहशाह- हिंदुस्तान के ओहदे से अलंकृत किया ।

भगत किया परिवार इट बुलंदशहर इटावा जून के प्रथम सप्ताह तक विद्रोह की आग अलीगढ़ मैनपुरी मथुरा लखनऊ बरेली कानपुर झांसी निमच मुरादाबाद सहारनपुर आदि तक फैल गई थी । • मध्य जून और सितम्बर 1857 के बीच यह आग ग्वालियर भोहो तथा स्यालकोट तथा बिहार में दानापुर हजारीबाग राची और भागलपुर तथा मध्य भारत में नागोडे और जबलपुर में फैल गई थी ।

सितम्बर - अक्तुबर तक यह स्पष्ट हो चुका था कि विद्रोह की आग नर्मदा को नहीं पार करेगी । नर्मदा के उत्तर में विद्रोह दिल्ली और पटना के बीच गंगा नदी से गुड ट्रक रोड तक फैला हुआ था ।

 

सैन्य विद्रोह - विद्रोह की घटनाओं के क्रम को देखने से ही उसके फैलने की प्रवृत्ति और तरीके का पता लग जाता है । विद्रोह की आग मेरठ और दिल्ली से गंगा तट पर नीचे की ओर फैली जैसे - जैसे विद्रोह की खबर फैली वैसे - वैसे उतने ही अंतराल से विद्रोह भी फैला । एक अफवाह यह भी थी कि 30 मई 1857 का दिन उत्तर भारत से अंग्रेजों को पूर्ण रूप से निष्कासित करने के लिए मुकर्रर किया गया था । जिस प्रकार दिल्ली पर कब्जा होने की खबर से सेना और जनता ने विद्रोह कर दिया उसी प्रकार मई के अंत में लखनऊ का पतन होने पर अवध के आसपास के इलाके में विद्रोह भड़क उठा ।

इस बात के कुछ प्रमाण मिलते हैं कि विद्रोह कर रही रेजिमेंटों के बीच थोड़ा - बहुत तालमेल और संचार कायम था और उनके कार्यकलापों में एक प्रकार की समानता थी । पर जिन्होंने यह तालमेल बैठाने की कोशिश की उन्होंने अपने नाम को गुप्त रखा । सेना में एक ही क्षेत्र अवच से ज्यादातर सिपाही भर्ती किए गए थे अंतः विद्रोह तथा ब्रिटिश कार्यवाई की खबर तेजी से फैली धर्म से संबद्ध अफवाहों ने विद्रोह की आग को फैलाने में घी का काम किया ।

20 इस विद्रोह में ब्रिटिश अधिकारियों के घर नष्ट किए गए और सरकारी खजानों और जेलों को तोड़ा गया|

 

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