4th Semester History | History of India 1700-1950 | Unit 7 | सांप्रदायिकता का विकास और भारत का विभाजन | DU SOL NCWEB Study Notes | BA PROG,BA,HONS

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4th Semester History

History of India C 1700 – 1950

Unit 7   सांप्रदायिकता का विकास और भारत का विभाजन:



भारतीय राष्ट्रवादी राजनीति में अलगाववादी प्रवृत्तियों का वर्णन 

 

भारतीय राष्ट्रवादी राजनीति में अलगाववादी प्रवृत्तियाँ हिन्दू और मुसलमान के मध्य उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्धं तक पर्याप्त सहयोग एवं समर्पण की भावना की। 1857 ई। के दौरान वे कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़े और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उल्लेखनीय सहयोग दिया। 

 

19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अनेक कारण ऐसे रहे जिनके कारण भारत में साम्प्रदायिक ने जन्म लिया और साम्प्रदायिकता इस हद तक बढ़ी कि इसका परिणाम भारत विभाजन के रूप में देखना पड़ा। उन तात्कालिक कारणों में से कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित थे जोकि भारतीय राष्ट्रीय राजनीति में साम्प्रदायिकता को प्रवष्टि करने में से प्रभावी सिद्ध हुए। 

 

' फूट डालो राज करो ' की नीति: अंग्रेजों को फूट डालो और राज करो ' की नीति भारत में साम्प्रदायिकता फैलाने में सबसे प्रमुख कारण रही। अंग्रेजों को मुगल शासकों से सदैव भय बना रहा। उनका प्रयास सदैव मुस्लिम शासकों को दबाने में ही लगा रहा। स्थिति यहाँ तक थी कि 1857 ई। के बाद अंग्रेज यहाँ हिन्दुओं में नरमी में पेश आते थे वहीं वे मुसलमानों के साथ आक्रामक रूख अपनाते थे। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली में ही 27,000 मुसलमानों को फाँसी की सजा दी गई थी। 

 

मुसलमानों का राजनीतिक अध:पतन करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। लार्ड पुलिसवरों ने स्पष्ट कहा था। " यह जाति ( मुसलमान ) हिन्दुत्व इससे विद्वेष रखती है और इसी कारण हमारी नीति हिन्दुओं को सन्तुष्ट करने की है, " इस नीति के कारण शासन एवं सेना में मुसलमानों का प्रवेश कर दिया गया। हिन्दु और मुसलमानों के मध्य खाई बढ़ाने के लिए अंग्रेजों ने अदालतों में उर्दू के स्थान पर हिन्दी भाषा के प्रयोग के लिए किए गए आंदोलन को अपना समर्थन दिया जिससे उत्तर प्रदेश व बिहार के मुसलमानों में वैमनस्यता पनप गई। विभिन्न वर्गों के हितों और स्वार्थों को अलग - अलग प्रथम देकर सरकार ने भारत में साम्प्रदायिक भावना का बीजारोपण किया जिसके भयंकर परिणाम निकले। 

 

1। मुसलमानों का आर्थिक व सांस्कृतिक पिछड़ापन- हिन्दुओं का अंग्रेजों की ओर से सरकारी नौकरियों से अधिक अवसर दिए जाने के कारण मुसलमान और पिछड़ते चले गए। अंग्रेजों के द्वारा लागू की गई बंगाल की स्थायी भू - व्यवस्था ने पुराने भूमिपतियों का जिनमें अनेक मुसलमान थे, नाश कर दिया। उनकी जगह जमीदारों का नया वर्ग पैदा हुआ। जिनमें अनेक हिन्दू थे।

परिणामस्वरूप मुसलमानों का हिन्दुओं के प्रति विद्वेष बढ़ना स्वाभाविक ही था। अपनी रूढ़िवादिता और कट्टरता के कारण मुसलमानों के द्वारा शिक्षा का लाभ नहीं लिया गया और वे सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्र में पिछड़ते गए, ज्यों - ज्यों उनका पिछड़ना जारी रहा, त्यों - त्यों आपसी वैमनस्यता परवान चढ़ने लगी। 

 

2। धर्म सुधार आंदोलनों का प्रभाव - धर्म सुधार आंदोलनों का प्रभाव यह पड़ा कि अमूमन प्रत्येक धर्म सुधारक ने अपने - अपने धर्म के ही गौरव को बढ़ाने के प्रयास किए जहाँ हिन्दू धर्म सुधारक आर्य धर्म की श्रेष्ठता को सिद्ध करने में लगे थे, वहीं मुसलमान सभी गैर - मुसलमानों के प्रति ध र्म युद्ध का नारा देकर देश में दार - उल - इस्लाम ' की स्थापना करना चाहते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि दोनों वर्ग एक - दूसरे को शंका की नजर से देखने लगे। 

 

3। साम्प्रदायिक इतिहास की शिक्षा का प्रभाव- अंग्रेज और उनसे प्रभाविक कुछ भारतीय इतिहासकारों ने साम्राज्यवादी विचारधारा से प्रभावित होकर ऐसे इतिहास की रचना की जिसने हिन्दू मुसलमानों के मध्य फूट का बीजारोपण कर दिया। धार्मिक दृष्टिकोण से भारतीय इतिहास हिन्दू काल और मुसलमान काल में विभाजन हो गया। इतिहासकारों ने हिन्दू राजाओं के काल में स्वर्णिम काल की संज्ञा दी। इतिहासकारों ने कुछ ऐसा लिखा कि मुसलमानों तथा हिन्दुओं में आपसी विद्वेष का पनपना स्वाभाविक था। 

 

4। हिन्दू कट्टरपंथ का उदय - साम्प्रदायिकता का विकास करने में हिन्दू कट्टरपंथ ने भी योगदान दिया। हिन्दू धर्म सुधारकों न हिन्दुओं में जातीय श्रेष्ठता का दंभ भर दिया। वे अपने आप को सर्वश्रेष्ठ मानने लगे और दूसरों को खास कर मुसलमानों को हेय दृष्टि से देखने लगे। इस प्रकार का वातावरण दोनों वर्गों के मध्य आपसी सौहार्द्रता कम करता गया।

 

मुस्लिम लीग की स्थापना:  मुसलमानों ने अपनी सुरक्षा के लिहाज से कांग्रेस से विमुख एक राजनीतिक संगठन अलग बनाने का निश्चय किया। चूँकि कांग्रेस के बढ़ते प्रभाव से अंग्रेज चिंतित थे। वे स्वयं उसके प्रभाव को कम करने की फिराक में थे। अतः उन्होंने मुस्लिमों का इस कार्य में सहयोग किया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार अलीगढ़ कॉलेज के प्राचार्य आर्चवोल्ड तथा वायसराय मिंटों के प्राइवेट सेक्रेटरी इनलप स्मिथ ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसके संकेत पर 36 मुसलमानों का एक शिष्टमंडल आग खाँ की अध्यक्षता मे 1 अक्टूबर 1906 ई। को वायसराय मिंटों से शिमला में कि। 

 

शिष्टमंडल ने वायसराय को राजभक्ति का आश्वासन दिया तथा अपने लिए कुछ सुविधाओं की माँग की। इन माँगों में प्रमुख थी - मुसलमानों को उनके राजनीतिक महत्व और साम्राज्य की रक्षा में की गई सेवाओं के आधार पर व्यवस्थापिका सभाओं में स्थान देना नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व देना, हाईकोर्ट तथा अन्य अदालतों में मुसलमान न्यायाधीशों की बहाली एवं मुस्लिम निर्वाचक मंडल की स्थापना करना। 

 

वायसराय ने उनकी माँगों को उचित ठहराते हुए उन्हें पूरा करने का आश्वासन दिया। इस निर्णय से उत्साहित होकर मुसलमानों ने एक केन्द्रीय संगठन बनाने की योजना बनाई दिसम्बर 1906 ई। में ढ़ाका में मोहम्मडन एजूकेशन कांग्रेस में भाग लेने के लिए प्रमुख मुसलमान एकत्र हुए थे। वहीं संस्था के निर्माण की योजना बनी 30 दिसंबर 1906 ई। को ढाका में मोहम्मद एजूकेशन कांग्रेस में भाग लेने के लिए प्रमुख मुसलमान एकत्र हुए थे। 

 

वहीं संस्था के निर्माण की योजना बनी। 30 दिसंबर, 1906 ई। को ढाका के नवाब सलीमुल्लाह मोहसिन मुल्क, आगा खां और नवाब वाकर - उल - मुल्क के प्रयासों से ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना का निर्णय लिया गया।

 

मुस्लिम लीग के उद्देश्य मुस्लिम लीग के प्रमुख उद्देश्यों को निम्नलिखित विन्दुवार रेखांकित किया जा सकता है 

( i ) भारत के मुसलमानों में अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादारी बढ़ाना तथा सरकार के प्रति गलतफहमी को दूर करना। 

 

( ii ) भारत के मुसलमानों के राजनीतिक और अन्य अधिकारों की रक्षा करना तथा उनकी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं को विनीत ढंग से सरकार के सम्मुख प्रस्तुत करना। 

 

( iii ) पहले दोनों उद्देश्यों को नुकसान पहुँचाए बिना मुसलमानों तथा अन्य सम्प्रदायों के मध्य मैत्री भाव का प्रचार करना।

 

देश का विभाजन और स्वतंत्रता प्राप्ति आजादी और विभाजन की शुरूआत 

 

क्रिप्स मिशन के असफल हो जाने के बाद 1942 ई। की अगस्त क्रांति की हिंसक घटनाओं का दोषारोपण सरकार ने महात्मा गांधी पर किया। सरकार की ओर से गांधीजी तथा कांग्रेस पर आरोप लगाए गए कि उन्होंने ही जनमानस को हिंसा करने पर मजबूर किया है। इस पर गांधीजी ने कहा कि उन्हें अपनी बात कहने का मौका दिया जाए तथा मुकदमा चलाया जाए। परन्तु सरकार ने उनकी एक नहीं सुनी। 

 

लाचार होकर गांधीजी ने जेल में ही 10 फरवरी से लेकर 3 मार्च, 1943 ई। तक 21 दिनों का उपवास रखा। गांधीजी ने निरन्तर गिरते स्वास्थ्य को लेकर सम्पूर्ण देश में उन्हें रिहा करने की माँग की गई। इस प्रश्न पर वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों ने त्यागपत्र भी दे दिया। फिर भी सरकार ने उन्हें रिहा नहीं किया। 

 

बाद में अधिक स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण सरकार ने गांधीजी को स्वतः ही 1944 ई। में जेल से रिहा कर दिया। 

 

1। राजगोपालाचारी योजना जेल से रिहा होने के बाद गांधीजी ने राजनीतिक गतिरोध दूर करने के लिहाज से प्रयास किया।  राजगोपालचारी की योजना को स्वीकृति प्रदान कर उन्होंने साम्प्रदायिकता से उत्पन्न संवैधानिक गतिरोध दूर करने का प्रयास किया। राजगोपालचारी की योजना के अनुसार मुस्लिम लीग को भारत की स्वतंत्रता की मांग का समर्थन करना था। युद्ध की समाप्ति पर भारत के उत्तर - पश्चिम एवं उत्तर - पूर्व के उन क्षेत्रों में जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक थे। एक आयोग के मार्फत इन इलाकों को स्पष्ट करना था। इन इलाकों में जनमत के आधार पर यह तत्व करना था कि वे भारत में रहना चाहते हैं या अलग होना। बटवारे की स्थिति में प्रतिरक्षा संचार आवागमन एवं जनसंख्या का आदान - प्रदान एक समझौता द्वारा तय किया जाएगा। परन्तु ये सभी शर्तें तभी लागू हो सकती थीं जब अंग्रेज भारत की सत्ता का हस्तांतरण कर देंगे। 

 

2। गांधी जिन्ना वार्ता- महात्मा गांधी ने राजगोपालचारी की योजना के अनुसार कार्य करते हुए जिन्ना से भेंट करके इस योजना को स्वीकार करने के लिए कहा गांधी तथा जिन्ना की वार्ता करीब दो सप्ताह चली। परन्तु अन्त में फेल हो गई। हालांकि गांधीजी बँटवारा को लेकर सहमत तो थे, परन्तु उनकी भावना यह थी कि बँटवारा तो हो, लेकिन एक संयुक्त परिवार की तरह, उधर जिन्ना की माँग यह थी कि पाकिस्तान में सिंध, उत्तरी - पश्चिमी सीमा प्रांत, पंजाब, बंगाल, असम और बूलचिस्तान भी शामिल हों, गांधीजी की इच्छा थी कि देश का बँटवारा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद में हो जवांक जिन्ना की तमन्ना यह थी कि बंटवारा स्वतंत्रता से पूर्व ही हो जाए। वह वार्ता भी असफल हो गई। लेकिन जिन्ना ने इस वार्ता को भारत - पाक विभाजन के मध्य एक प्रमुख हथियार के रूप में काल में लिया।

सांप्रदायिक से अभिप्राय अपने धार्मिक संप्रदाय से भिन्न अन्य संप्रदाय अथवा संप्रदायों के प्रति उदासीनता, उपेक्षा, दयादृष्टि, घृणा विरोधी व आक्रमण की भावना है, जिसका आधार वह वास्तविक या काल्पनिक भय है कि उत्त संप्रदाय हमारे संप्रदाय को नष्ट कर देने या हमे जान-माल की हानि पहुंचाने के लिए कटिबद्ध है।

 

व्यापक अर्थ मे सांप्रदायिकता एक संकीर्ण मानसिक सोच है जो अपने समूह को श्रेष्ठ मानती है और उसके हितो के संवर्धन के लिये कोशिश करती है। यह धर्म, जाति, भाषा, स्वजातीय या क्षेत्रीय मे से किसी भी आधार पर हो सकती है किन्तु एक निश्चित अर्थ मे सांप्रदायिकता का आधार धर्म है|


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