4th Semester History | History of India 1700-1950 | Unit 5A | 19 वीं सदी में सामाजिक - धार्मिक सुधार आन्दोलन | DU SOL NCWEB Study Notes | BA PROG,BA,HONS

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4th Semester History

History of India C. 1700 – 1950

Unit 5

(i) 19 वीं सदी में सामाजिक - धार्मिक सुधार आन्दोलन: एक सिंहावलोकन

(ii) फुले, अंबडकर और जाति का सवाल

(iii) किसान और आदिवासी आन्दोलन


19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलन धार्मिक आंदोलन नहीं थे बल्कि वे सामाजिक धार्मिक आंदोलन थे| बंगाल के राममोहन राय, महाराष्ट्र के गोपाल हरी देशमुख, जैसे सुधारकों ने धार्मिक सुधारों की वकालत की थी| आंदोलन और उनके नेताओं के सुधार की विशेषता इस मान्यता में थी कि धार्मिक और सामाजिक समस्याओं में अंतर संबंध है|

 

आंतरिक सुधार- अंतरिक्ष सुधार प्रणाली की शुरुआत राम मोहन राय द्वारा की गई थी और 19वीं शताब्दी में इसका प्रयोग हुआ| इस प्रणाली के विचारों को का यह विश्वास था कि किसी भी सुधार को प्रभावशाली होने के लिए यह आवश्यक है कि वह समाज के अंदर से ही हो|

 

अंग्रेजी शिक्षा के प्रारम्भिक दौर का वर्णन-

 

अंग्रेजी शिक्षा का प्रारम्भिक दौर - अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से प्रारम्भिक लाभ अधिकतर मध्यवर्गीय हिन्दुओं ने उठाया। उच्चवर्गीय हिन्दू तथा मुस्लिम समाज शुरू में इससे अलग प्राय ही रहा, कुछ समय के बाद ही अंग्रेजी शिक्षा का असर इस तरह होने लगा कि अधिकतर भारतीय के मन में इसके प्रति अत्यधिक रूचि तथा सम्मान होने लगा था।

जो विचार इंग्लैण्ड पर छा रहे थे, उसी की तर्ज पर यहाँ की विचारधारा बड़ी तीव्रगति से बदलने लगी। कैथोलिक मुक्ति कानून (1829), सुधार बिल (1832), दासता दूरीकरण (1833) और नवीन दरिद्र पोषक कानून (1834) जैसे महत्त्वपूर्ण कानूनों का बनना पश्चिमी शिक्षा का ही प्रभाव था।

 

1857 ई. से पूर्व का काल शिक्षा के क्षेत्र के प्रयोगों का काल कहा जाता है। अतः उपलब्धियों की अपेक्षा प्रयोगों की अधिकता रही। 1813 ई. के चार्टर अधिनियम में शिक्षा सम्बन्धी निर्देश पूरी तरह स्पष्ट थे। अतः शिक्षा के लक्ष्य माध्यम, शिक्षा प्रणाली एवं शिक्षण संस्थाओं के प्रबन्ध के विषय में विवाद होता रहता था। वहाँ का प्रबुद्ध वर्ग देशी विद्यालयों को प्रोत्साहन देना चाहता था तो कुछ लोग मिश्नरी प्रयासों के समर्थक थे।

 

उत्तर -पश्चिमी प्रान्त में थॉम्पसन ने देशी विद्यालयों के स्थान पर सरकारी विद्यालयों की स्थापना की जा रही थी। यहाँ मातृभाषा को शिक्षा को माध्यम बनाए जाने के प्रयास होने लगे थे।

जबकि बंगाल में अग्रेंजी को माध्यम बनाया गया। आगरा में नार्मल स्कूल खोला गया एवं 1852 ई. में सेंट जोंस कॉलेज स्थापित किया गया।

1853 ई. में बनारस कॉलेज की स्थापना थॉम्पसन के द्वारा की गई। अंग्रेजी शिक्षा के लिए 1849 ई. में अमृतसर एवं लाहौर में स्कूल खोले गए।

1842 ई. में कलकत्ता के हिन्दू कॉलेज में कानून तथा 1844 ई. में इंजीनियरिंग की शिक्षा शुरू की गई।

1841 ई. में मद्रास में हाई स्कूल तथा 1852 ई. में कॉलेज की स्थापना की गई। अंग्रेजी संसद की ओर से नियुक्त कमेटी की रिपोर्ट पर 1854 ई. में शिक्षा व्यवस्था का घोषणा - पत्र जारी किया गया। उस समय बोर्ड ऑफ कंट्रोल का अध्यक्ष सर चार्ल्स वुड था।

उसकी घोषणा पर 1859 ई. में कलकत्ता, बम्बई एवं मद्रास में विश्वविद्यालय खोले गए। इस तरह भारतीय शिक्षा को वैधानिक स्वरूप प्राप्त हुआ। वुड के घोषणा पत्र को भारतीय शिक्षा का महान् आज्ञा - पत्र भी कहा जाता है।

 

सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलन में भारतीय पुनर्जागरण की समीक्षा-

 

सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलन की बदौलत भारतीय लोगों की मानसिकता में बहुत हद तक परिवर्तन आया उनके विचारों में एक नई क्रांति का जन्म हुआ इसका परिणाम यह निकला कि भारतीय समाज में धर्म समाज साहित्य राजनीति एवं कला कौशल बड़े पैमाने पर प्रभावित हुई इस विचारधारा को ही पुनर्जागरण की संज्ञा दी गई है।

 

1. धार्मिक क्षेत्र में परिवर्तन- धार्मिक एवं सामाजिक आंदोलनों के कारण भारतीय समाज में धार्मिक क्षेत्र में बड़े स्तर पर परिवर्तन आए जैसे कि भारत की कुप्रथा हैं और कुरीतियां जो कि भारतीय समाज में बड़े स्तर पर फैली हुई थी उनमें बदलाव आया जैसे कि - बलि देना यज्ञ, अंधविश्वास, तथा पुरोहितों के महत्व को नकारना शुरू कर दिया।

 

2. सामाजिक क्षेत्र में परिवर्तन- भारतीय समाज धार्मिक क्षेत्रों की तरह विभिन्न को प्रथम से ग्रस्त था| जाति प्रथा, छुआछूत, अशिक्षा, बाल विवाह, शिशु वध, बलि प्रथा, आदि जैसी कुप्रथा ने भारतीय समाज में बड़े स्तर पर स्थान ग्रहण कर रखा था जिसको धार्मिक आंदोलन से बहुत ज्यादा हटाने में मदद मिली।

 

3. मानसिकता व विचारों में परिवर्तन- धार्मिक तथा समाज सुधार आंदोलन ने भारतीयों के मन में हुए मस्तिष्क को स्वतंत्र एवं उन्मुक्त बना दिया नवीन चेतना को बढ़ाने में मदद की। लोगों की मानसिकता में बड़े स्तर पर बदलाव आया और उनके दृष्टिकोण में भी बदलाव आया।

 

4. साहित्य के क्षेत्र में प्रगति- पुनर्जागरण से साहित्य के क्षेत्र में भी परिवर्तन आया। अंग्रेजी शिक्षा के विकास ने अनेक भारतीय ग्रंथों का अनुवाद अंग्रेजी में करवा दिया। लोगों को अपने अतीत के साहित्य से रूबरू होने का मौका मिला भारतीयों के साथ साथ अंग्रेजों को भी यहां के उल्लेखनीय साहित्य को समझने एवं परखने का मौका मिला।

 

5. प्रादेशिक भाषा का विकास- संस्कृत साहित्य का जितना विकास हुआ उसी के अनुसार भारतीय मूल की अनेक प्रदेशिक भाषाओं को भी फलने फूलने का मौका मिला। हिंदी उर्दू बंगला उड़ीसा तमिल तेलुगु आदि भाषाओं में इन क्षेत्रों के साहित्य का इतिहास ओं को प्रकाशन का अवसर मिला तथा इन भाषाओं को भी बढ़ने का और फैलने का एक मौका दिया गया।

 

6. कला व औद्योगिक विकास में प्रकृति-भारतीय पुनर्जागरण ने कला एवं औद्योगिक विकास की प्रगति में अमूल्य योगदान दिया है हैवेल एवं सिस्टर निवेदिता के प्रयासों से भारतीय चित्रकला में सफलता के ऊंचे आयामों तक अपनी पहुंच बनाइए। कला के विकास के लिए अनेक कला केंद्र की स्थापना की गई। इनके द्वारा संगीत नृत्य चित्र तथा वस्तु कला विकसित दशा में पहुंच सकी।

 

7. वैज्ञानिक क्षेत्र में प्रगति-साहित्य और भाषा के विकास के साथ-साथ वैज्ञानिक क्षेत्र में भी अनेक परिवर्तन आए। रामानुजम, जगदीश चंद्र बसु, सीवी रमन, मेघनाद सहा, एस चंद्रशेखर जैसे विद्वान तथा वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान तथा निवेशकों द्वारा वैज्ञानिक जगत में भारत की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित।

 

सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलनों का वर्णन-

सामाजिक एव धार्मिक सुधार आन्दोलन- 19 वीं तथा 20 वीं सदी में भारत में जहाँ राजनीतिक घटनाओं का प्रभुत्व रहा, वहीं धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलनों के कारण समाज को एक नई दिशा एवं गति मिली । छुआछूत, मूर्तिपूजा, बालविवाह, धार्मिक अधविश्वासों व पर्दा प्रथा जैसी कुप्रथाओं से लोगों को छुटकारा मिला ।

जब अंग्रेजों ने यहाँ पदार्पण किया तो भी ये प्रथाएँ अस्तित्व में थीं, परन्तु उन्होंने इन्हें मिटाने के लिए कोई ठोस एवं कारगर कदम नहीं उठाए, इसकी वजह यह थी कि इन सामाजिक कुरीतियों के सहारे भारतीयों के जीवन की कमजोरी का नाजायज फायदार उठाकर स्वयं की सत्ता को मजबूत करना चाहते थे, परन्तु कुछ कारण ऐसे थे कि भारतीयों के जनमानष के बदलाव आया और वे अपना लाभ - हानि सोचने लगे ।

इन कारणों में पाश्चात्य, शिक्षा तथा ज्ञान - विज्ञान का सम्पर्क अपने आप में महत्वपूर्ण कारण रहा, भारतीय समाज की बुराईयों एवं नए समाज के उदय की कल्पना ने तात्कालिक जनसमुदाय के मन में ऐसा जोश - खरोश पैदा किया कि युद्ध स्तर पर धार्मिक तथा सामाजिक दोनों प्रकार के आन्दोलनों को बल ।

 

सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलन-

कारण:

भारत में अंग्रेजी शासन की स्थापना से जन्मी बौद्धिक विकास एवं पाश्चात्यीकरण की प्रक्रिया ।

· मिशनरियों द्वारा ईसाई धर्म का प्रसार एवं भारतीयों को ईसाई बनाना ।

    हिन्दु धर्म एवं समाज में व्याप्त अंधविश्वास, कुरीतियां एवं असमानता ।

·       देसी एवं विदेशी विद्वानों की चिन्तनशील गतिविधियां ।

·       पाश्चात्य शिक्षा, मानवतावाद एवं सार्वभौमवाद का विकास ।

आंदोलन की सीमाएँ-

सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन मुख्यतः नगरीय समाज की आवश्यकताओं से ही संचालित  जय देश के गाँवों और किसानों तथा शहरों के गरीब लोगों तक पहुँच नहीं हो पाने के कारण आंदोलन का सामाजिक आधार व्यापक नहीं हो पाया।

इसके अलावा  अतीत की महानता पर अत्यधिक बल दिये जाने से सहज तार्किकता प्रभावित हुई।

सामाजिक धार्मिक आंदोलन में मुख्यतः  कर्मकांडों  के ऊपर ही प्रहार किया गया जबकि इसमें गरीबी  तथा बेरोजगारी जैसे समस्या के समाधान के प्रयासों का अभाव है।  ये समाज की सबसे बड़ी समस्याओं में शामिल थे।

इसके  अलावा संस्कृति के  कई क्षेत्रों जैसे-स्थापत्य, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला आदि  पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।

आंदोलन  की एक सीमा यह थी कि यह आंदोलन भी स्वार्थवादी रुझानों ऊपर नहीं उठ पाया। उदाहरण के लिये भारतीय ब्रह्म समाज से जुड़े नेता केशवचंद्र सेन द्वारा बाल विवाह का विरोध किया गया था। किंतु उन्होंने अपनी 13 वर्षीय पुत्री की शादी कूच बिहार के राजा से कर दिया। इससे जनता के मन में आंदोलन के प्रति विश्वास घटा।

इसके अलावा प्राचीन इतिहास पर अधिक बल दिये जाने से तथा मध्यकालीन इतिहास की उपेक्षा से संप्रदायवादी रुझानों का विकास हुआ। इसकी परिणीति भारत के विभाजन के रूप में देखी जा सकती है।

 

सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन का महत्त्व-

 

अंग्रेजों द्वारा भारत पर शासन करने के नैतिक आधार को सुदृढ़  करने के लिये भारतीयों को अपराधी बताया जा रहा था, किंतु आंदोलन के नेताओं ने भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पन्नों को सामने लाकर यह साबित कर दिया कि सभ्यता तथा नैतिकता के मामले में भारतीय किसी से पीछे नहीं हैं। इससे भारतीयों के  आत्मसम्मान तथा आत्मविश्वास में वृद्धि हुई।

आत्मसम्मान की यही भावना आगे चलकर राष्ट्रवादी तथा स्वतंत्रता वादी विचारों के रूप में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को प्रोत्साहित करती रही।

मानवतावाद पर बल दिये जाने के कारण धर्म तथा जातिगत आधार पर  विभेद तथा छुआछूत की भावना में कमी आई और एकता की भावना में वृद्धि हुई।

सामाजिक-धार्मिक विश्वासों को तोड़ने के लिये शिक्षा पर बल दिया जाने से देश में पत्र पत्रिकाओं का प्रसार हुआ और जन सामान्य की जागरूकता में वृद्धि हुई।

इस आंदोलन के प्रणेता यह मानते थे कि जिस देश में महिलाएँ उपेक्षित हो वह देश सभ्यता के क्षेत्र में कभी भी उल्लेखनीय प्रगति नहीं कर सकता। अतः महिलाओं की स्थिति में सुधार के व्यापक प्रयास किए गए। इसके परिणामस्वरुप 1829 में सती प्रथा को गैर-कानूनी बना दिया गया तथा विद्यासागर के प्रयासों से हिंदू विधवाओं के पुनर्विवाह हेतु 1856 में अधिनियम का निर्माण किया गया। साथ ही बाल विवाह का विरोध करते हुए महिला शिक्षा को बढ़ावा दिया गया।

 

राजा राममोहन राय और उनके कार्यों का वर्णन-

 

राजा राममोहन राय को समुचित ही आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है। वे एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने राष्ट्रीय जीवन के लगभग सारे पहलुओं को उठाया और भारतीय राष्ट्र की पुनर संरचना के लिए संघर्ष किया। उन्होंने कई भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया और अपने समय के एक प्रखंड पंडित के रूप में प्रसिद्ध हुए।

कार्यों-

1805 ईस्वी में कंपनी की सेवा करने लगे। परंतु 1814 ईसवी में उन्होंने कंपनी की नौकरी छोड़ दी और स्थाई रूप से कोलकाता में निवास करने लगे। कोलकाता में उनकी मुलाकात डरोजिओ और उनके समर्थकों से हुई, उन से प्रभावित होकर उन्होंने 1815 ईसवी में आत्मीय सभा की स्थापना की।

 

जिसमें धार्मिक मुद्दों पर चर्चा होती थी, मूर्ति पूजन, जाति प्रथा व छुआछूत जैसी कुरीतियों को जड़ से मिटाने के लिए कार्य किया जाता था।

 

सती प्रथा को मिटाने में उनकी अहम भूमिका रही है। अपने विचारों से अधिक से अधिक लोगों को परिचित करने की दृष्टि से उन्होंने वेदों तथा प्रमुख उपनिषदों का बंगाली भाषा में अनुवाद किया। 18 से 20 ईसवी में उनकी प्रसिद्ध दूसरी पुस्तक प्रिसेप्ट्स ऑफ जीसस प्रकाशित हुई।

उन्होंने ब्रह्म समाज के नाम से प्रसिद्ध हुई।

उन्होंने बहु - विवाह एवं बाल विवाह की भर्त्सना की और समाज में महिलाओं के उत्पीड़न एवं उनके निम्न स्तर पर होने का विरोध हुआ । उन्होंने उनकी समस्याओं का मूल कारण सम्पत्ति अधिकारों का अभाव बताया । उनके विचार से, भारतीय समाज को सामाजिक जड़ता से मुक्त करने के लिए महिला शिक्षण एक अन्य प्रभारी माध्यम था ।

उन्होंने आधुनिक शिक्षा के प्रवर्तन एवं प्रसार के लिए काम किया, जो देश में आधुनिक विचारों के प्रमुख साधन की भूमिका निभा सकती थी । इसके संवर्धन के लिए उन्होंने डेविड के साथ मिलकर प्रसिद्ध हिंदू कालेज की स्थापना 1817 में की । उन्होंने अपने ही खर्चे से कलकत्ता में एक अंग्रेजी स्कूल भी चलाया ।

1825 में उन्होंने वेदांत कालेज की स्थापना की, जिसमें भारतीय तथा पाश्चात्य दोनों ही प्रकार के अध्ययनों की सुविधा थी ।

राममोहन ने भारत में पाश्चात्य वैचारिक ज्ञान, गणित, प्राकृतिक दर्शन, रसायन, शरीर क्रिया विज्ञान और अन्य उपयोगी विज्ञानों के शिक्षण की आवश्यकता पर बल दिया । पाश्चात्य बौद्धिक विकास के सन्निहित कारणों को वे समझते थे और चाहते थे कि भारत के लोग भी यूरोप की प्रगति के परिणामों से परिचित हों । उनका लक्ष्य था, पूर्व और पश्चिम की सर्वोत्तम विशेषताओं का समन्वय ।


PDF NOTES of 4th Semester History भारत का 

इतिहास 1700-1950 Unit 1 to 8 Notes in 

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