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4th Semester History
History of India C. 1700 – 1950
Unit 6 Part 3
गाँधीजी एवं उनकी विचारधाराएँ - महात्मा गाँधी का भारतीय राष्ट्रीय क्षितिज पर आगमन बीसवीं सदी के दूसरे शतक के अंत में हुआ , उन्होंने जिस राजनीतिक संघर्ष की शुरूआत की उसका प्रशिक्षण उन्होंने दक्षिणी अफ्रीका के प्रयास काल के दौरान प्राप्त किया था ।
1891 ई. में वे वकालत पूरा करके इंग्लैण्ड से भारत लोटे और अभिभावक के रूप में स्थापित होने की कोशिश करते रहें , लेकिन उन्हें खास सफलता नहीं मिली , जब उन्होंने यह देखा वे इस कार्य में सफल नहीं हो पा रहे है तो उन्होंने नेपाल की दादा अब्दुल्लाह एण्ड कम्पनी का एक यह प्रस्ताव मान लिया कि वे अफ्रीका में वकालत में पेश एक मामले में उनके सलाहाकर हों ।
दक्षिण अफ्रीका में पहुंचने के थोडें दिन बाद ही उन्हें एक ऐसा कटु अनुभव हुआ कि जो उनके जीवन मार्ग को ही बदल गया । वह अनुभव केवल उनका व्यक्तिगत अपमान नहीं , बल्कि समस्त राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के स्वरूप प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में उनकी भावना को आद्यात पहुँचाने वाला था , इससे क्षुब्ध होकर उनका मन आन्दोलित हो उठा और उन्होंने जाति भेदभाव को दूर करने के लिए तथा भारतीयों के ओहदे को ऊँचा उठाने का संकल्प कर लिया । दक्षिण अफ्रीका में जो भारतीय रह रहे थे , वे अंग्रेजों की जातीय भेदभाव की नीति से परिचित थे । इस भेदभाव की नीति का विरोध गांधीजी ने शुरू किया ।
गांधीजी को प्रथम श्रेणी के डिब्बे का टिकट होने के बाद भी ट्रेन से नीचे उतार दिया गया , होटल में कमरा चाहने पर उन्हें जवाब मिला कि कमरा खाली नहीं है , गांधीजी ने प्रिटोरिया में भारतीयों की बैठक आयोजित करके उनसे अंग्रेजों के अत्याचारों का विरोध करने की अपील की । जब वे प्रिटोरिया में अपने मुवक्किल का मुकदमा समाप्त होने पर भारत लौटने की तैयारी करने लगे तो इससे पूर्व ही भारतीयों को मताधिकार से वंचित करने का मामला उठ खड़ा हुआ ।
इसके अलावा उन पर 3 पौण्ड प्रतिवर्ष का मतदान टैक्स लगाया गया । इस प्रकार का भेदभाव गांधीजी से सहन नहीं हुआ और वे करीब महीने भर के लिए वहीं रूकने के लिए तैयार हो गए । किन्तु उनके महीने भर का पड़ाव वर्षों में बदल गया और वे करीब 22 वर्ष बाद अफ्रीका से लौटें । दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने सत्याग्रह आन्दोलन किया । गांधीजी के दक्षिणी अफ्रीका के संघर्ष की कहानी के इस प्रथम दौर में ( 1894-1906 ) उनकी राजनीतिक गतिविधियों की प्रणाली नरम रही । इस दौरान वे अपने कार्यों के सम्बन्ध में सरकार को ज्ञापन और याचिकाएँ भेजते रहे । उनका विश्वास था कि उसकी समस्याओं पर सरकार अवश्य ध्यान देगी । इसके अलावा भारतीयों को एक सूत्र बाँधने के उद्देश्य से उन्होंने ' नेशनल भारतीय कांग्रेस ' का गठन किया और ' इंडियन ओपिनियन ' नामक अखबार निकालने की प्रक्रिया शुरू की । सुमित सरकार की ओर से उनके आन्दोलन को अनिवार्यतः व्यापारियों व वकीलों के आन्दोलन की संज्ञा दी गई ।
असहयोग आन्दोलन के प्रारम्भिक की समीक्षा-
असहयोग आन्दोलन की शुरूआत प्रथम युद्ध के बाद उत्पन्न आर्थिक संकट , अकाल , महामारी । 1919 ई . के सुधारों से व्याप्त असन्तोष का वातावरण , सरकारी की दमन नीति और भारत में बढ़ती राष्ट्रीयता की भावना से असहयोग आन्दोलन के लिए पर्याप्त माहौल पैदा कर दिया ।
1920 ई . में कांग्रेस के एक विशेश अधिवेशन में गाँधीजी के बहिष्कार और असहयोग की नीति का ऐलान कर दिया । विरोध स्वरूप गांधीजी ने केसर - ए - हिन्द की उपाधि को लौटा दिया । दिसम्बर 1920 ई . के दिन नागपुर कांग्रेस अधिवेशन ने गांधीजी के असहयोग आन्दोलन के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी ।
असहयोग के दो पक्ष थे – प्रथम , रचनात्मक तथा द्वितीय , विध्वंसात्मक पहले वर्ग में स्वदेशी को प्रोत्साहन देने , असहयोग आन्दोलन के लिए ' तिलक कोष ' में एक करोड़ रूपए की राशि एकत्र करने , स्वयंसेवकों का दल तैयार करने , चरखा एवं कताई - बुनाई का प्रसार प्रचार करने , राष्ट्रीय विद्यालय स्थापित करने , हिन्दू मुस्लिम एकता बढ़ाने जैसे कार्यक्रम रखे गए तथा दूसरे वर्ग , विध्वंसात्मक कार्रवाई में स्थानीय संस्थाओं से त्यागपत्र देने|
1920 ई . में होने वाले चुनावों के बहिष्कार की भी योजना बनाई गई ।
असहयोग आन्दोलन का आरम्भ- इस आन्दोलन का नेतृत्व स्वयं गांधीजी ने ही किया । सरकारी उपाधि कैंसर - ए - हिन्द को उन्होंने लौटा दिया । उनका अनुसरण करते हुए रवीन्द्रनाथ ठाकुर सहित अनेक गणमान्य व्यक्तियों ने भी अपनी सम्मानजनक उपाधियाँ लौटा दीं । मोतीलाल नेहरू , चितरंजन दास , राजेन्द्र प्रसाद जैसे वकीलों ने वकालत छोड़ दी । हजारों छात्रों ने स्कूलों से नाता तोड़ लिया । विदेशी वस्तुओं की होली जलाई गई । अनेक राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना हुई । जिनमें काशी विद्यापीठ , गुजरात विद्यापीठ , बिहार विद्यापीठ , महाराष्ट्र विद्यापीठ , जामिया मिलिया विश्व विद्यालय आदि प्रमुख थे । लाखों की संख्या में स्वयंसेवक तैयार हुए , जगह - जगह पर प्रदर्शन तथा हड़तालों का आयोजन हुआ ।
भारत छोड़ो आन्दोलन क्या है ? आन्दोलन की शुरूआत एवं महत्त्व की समीक्षा
क्रिप्स मिशन, 1942
द्वितीय विश्व युद्ध के निर्णायक दौर में पहुँचने के समय ब्रिटिश शासन द्वारा यह अनुभव किया जाने लगा कि भारतीयों द्वारा स्वेच्छा से दिया गया असयोग अधिक मूल्यवान होगा । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए 1942 के मार्च माह में ब्रिटिश कैबिनेट मंत्री स्टेफोर्ड क्रिप्स को कुछ प्रस्ताओं के साथ भारत भेजा गया, जिसे भारत के सभी राजनैतिक दलों ने अस्वीकार कर दिया । क्रिप्स प्रस्ताव के अन्तर्गत यह मान लिया गया था कि युद्वोपरान्त भारतीयों को यह अधिकार होगा कि वे अपने लिए अपनी संविधान सभा में संविधार का निर्माण कर सकें, किन्तु प्रान्तों को नये संविधान स्वीकार करने या न करने की छूट दी गयी थी । मुस्लिम लीग द्वारा इस प्रस्ताव को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि इसके द्वारा देश को सम्प्रदायिक आधार पर बटवारे की उसकी मांग की व्यवस्था इस प्रस्ताव में नही थी । कांग्रेस द्वारा इस आधार पर विरोध किया जा रहा था कि प्रस्ताव द्वारा देश के छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटने की सम्भावनाओं के द्वारा खोल दिये गये थे । गाँधी जी द्वारा इस प्रस्ताव को यह कहकर आलोचना की गयी कि यह प्रस्ताव बाद की तारीख का चेक है।
भारत छोड़ों आन्दोलन- क्रिप्स मिशन की असफलता के कारण भारतीय नेताओं में क्षोभ उत्पन्न होने के साथ ही देशवासियों में भी निराशा व्याप्त हो गई । विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों की स्थिति भी कमजोर पड़ गई थी । भारत पर जापानी हमले की संभावना बन रही थी । मलाया और वर्मा में जापानियों ने उपद्रव शुरू कर दिया था । जापानी प्रगति को देखकर अंग्रेजों ने पीछे हटने की योजना बनाई । इससे बंगाल के औद्योगिक प्रतिष्ठान तथा अर्थव्यवस्था पूरी तरह नष्ट हो जाने का खतरा पैदा हो गया । इस स्थिति को देखकर गाँधीजी के मन में यह बात आई कि इस समय निराशा और घबराहट से जनता को सिर्फ इसी बात के आधार पर बचाया जा सकता है कि यदि उसके मन में यह बैठा दिया जाए कि उसे अपनी सुरक्षा स्वयं करनी है । अंग्रेजी सत्ता पर निर्भर नहीं रहना है । इसलिए गाँधीजी ने अंग्रेजों से ' भारत छोड़ने ' और भारतीयों को सत्ता सौंपने की बात कहीं । हालांकि उनके इस कार्य से नेहरू , मौलाना अब्दुल कलाम आजाद वगैरह प्रसन्न नहीं थे । सरदार पटेल और गाँधीजी के प्रयासों से अंततः जुलाई 1942 ई . में बर्धा में कांग्रेस महासमिति ने गाँधीजी के ' अहिंसक विद्रोह ' को स्वीकृति प्रदान कर दी । 7 अगस्त , 1942 ई . को बम्बई में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें महत्त्वपूर्ण अगस्त प्रस्ताव पेश किया गया , प्रस्ताव में कांग्रेस अध्यक्ष आजाद ने घोषणा की- " कौम चुपचाप देखती नहीं रह सकती जब उसकी तकदीर का फैसला होने जा रहा है , हिन्दुस्तान ने मजदूरी मुल्कों के साथ हाथ मिलाने की कोशिश की थी । लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने बाइज्जत हाथ मिलाना भी नामुमकिन बना दिया । अंग्रेज अगर चाहे तो हिन्दुस्तान छोड़कर जा सकते हैं । लेकिन हिन्दुस्तानी इसे नहीं छोड़ सकते । क्योंकि यह उनका घर है , इसलिए उन्हें ऐसी ताकत पैदा करनी होगी जो ब्रिटिश बेड़ी को उतार फेंके और किसी भी नए हमलावर के किसी भी हमले को रोक सकें ।
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